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अनुत्तरौपातिक में पोट्टिल अणगार की कथा है। वासी थे। इनकी माता का नाम भद्रा था। महावीर के पास प्रव्रज्या ग्रहण की। अन्त में उत्पन्न हुए। वहाँ से च्युत होकर महाविदेह उनके भरत क्षेत्र में सिद्ध होने की बात कही है । अन्य है ।
उसके अनुसार ये हस्तिनागपुर के इन्होंने बतीस पत्नियों को त्यागकर भगवान् एक मास की संलेखना कर सर्वार्थसिद्ध में सिद्ध होंगे । परन्तु प्रस्तुत प्रसंग में इससे लगता है कि ये अनगार कोई
क्षेत्र में
आगामी चौबीसी में इनका स्थान इस प्रकार होगा -
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१ - श्रेणिक का जीव पद्मनाभ नाम के प्रथम तीर्थंकर । २ - सुपार्श्व का जीव सुरदेव नाम के दूसरे तीर्थंकर | १३ – उदायी का जीव सुपार्श्व नाम के तीसरे तीर्थंकर । - पोट्टिल का जीव स्वयंप्रभ नाम के चौथे तीर्थंकर । ५ - दृढायु का जीव सर्वानुभूति नाम के पाँचवें तीर्थंकर । ६- शंख का जीव उदय नामक सातवें तीर्थंकर | ७ - शतक का जीव शतकीर्ति नाम के दसवें तीर्थंकर । ८- सुलसा का जीव निर्ममत्व नाम पन्द्रहवें तीर्थंकर | नोट – इनमें से शंख और रेवती का वर्णन भगवती में प्राप्त है परन्तु वहाँ उनके भावी तीर्थकर होने का उल्लेख नहीं है । इसके कथानकों से यह स्पष्ट नहीं होता कि उनके तीर्थंकर गोत्र-बंधन के क्या-क्या कारण हैं ।
भगवान् महावीर के शासनकाल में कतिपय व्यक्तियों ने तीर्थ कर - गोत्रकर्म का उपार्जन किया- उदाहरणतः
७- निर्ग्रन्थी पुत्र सत्यकी - वैशाली अधिपति महाराज चेटक की पुत्री का नाम ज्येष्ठा था। वह प्रत्रजित हुई और अपने उपाश्रय में कायोत्सर्ग करने लगी ।
वहाँ एक पेढाल परिवाजक रहता था । उसे अनेक विद्याएँ सिद्ध थीं । वह अपनी विद्या को देने के लिए योग्य व्यक्ति की खोज कर रहा था । उसने सोचा - यदि किसी ब्रह्मचारिणी स्त्री से पुत्र उत्पन्न हो तो ये विद्याएँ बहुत कार्यकर हो सकती है। एक बार उसने साध्वी को कायोत्सर्ग में स्थित देखा । उसने मन्त्र विद्या से धूमिका व्यामोह ( वातावरण को धूमिल बनाकर ) से साध्वी में वीर्यका निवेश किया । उसके गर्भ रहा । एक पुत्र उत्पन्न हुआ। उसका नाम सत्यकी रखा। एक बार वह साध्वी अपने पुत्र के साथ भगवान् के समवसरण में गई । उस समय वहाँ काल संदीप नाम का विद्याधर आया और भगवान् से पूछा मुझे किससे भय है ? भगवान् ने सत्यकी की ओर इशारा करते हुए कहा - 'इस सत्यकी से ।' तब कालसंदीप उसके पास आकर अवज्ञा करते हुए बोला'अरे! तू मुझे मारेगा ! यह कहकर उसने अपने पैरों में गिराया ।
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