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१ - - पिशाच, २ - भूत, ३ यक्ष, ४- राक्षस, ५– किन्नर, ६ - किंपुरुष, ७-- - महाकाय, महोरग, ८-अति ललित गंधर्व ( - नाट्य गीत ) और गीत ( नाट्य वर्जित गेय गीत या संगीत ) में रति ( - आसक्ति ) रखने वाले गंधर्वनिकाय ( - गंधर्व जाति) के गण, ६ अण्पणिय, १० - पणपणिय, ११ - ऋषिवादिक, १२ - भूतवादिक, १३ - कंदित, १४ महाकंदित १५ – कुष्मांड और १६ - प्रयतदेव ।
वेदेव चंचल - चपल ( = अति चंचल ) चित्तवाले, क्रीड़ा और परिहास प्रिय थे । उन्हें गंभीर हास्य और वाणी का प्रयोग प्रिय था । वे गीत, नृत्य, में रतिवाले थे
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वे वनमाला, फूलों का सेहरा ( आमेलक ) मुकुट, कुण्डल, अपनी इच्छा के अनुसार वित्रित, (विविध रूप बनाने की शक्ति से निर्मित) अलंकार, और सुन्दर आभूषणों को पहने हुए थे। सभी ऋतुओं में उत्पन्न होने वाले सुगंधित गुणों से सुन्दर ढंग से बनी हुई लम्बी मालाओं और शोभित, कांत, विकसित एवं विचित्र वन मालाओं से उनके वक्षस्थल सुशोभित थे । वे इच्छागामी और काम रूपधारी थे ।
वे नाना भाँति के वर्ण-रंग वाले वाले श्रेष्ठ वस्त्र और विविध भड़कीले परिधान के धारक थे । विविध देशारूढ, वेष-भुषाएँ उन्होने ग्रहण कर रखी थी
वे प्रमुदित कंदर्प, कलह, केलि और कोलाहल में प्रीति रखने वाले हंसने वाले और अधिक बोलने वाले थे
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उनके अनेक मणि रत्नमय नियुक्त विविध एवं विचित्र चिह्न थे थे यावत् पर्युपासना करने लगे ।
। वे बहुत
.१० ज्योतिषक देवों का
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जोइलिया देवा अंतियं पाउन्भवित्था, विहस्सती चंदसूर सुक्क सणिश्वरा राहू धूमकेतू बुहाय अंगारक व तत्त तवणिज्ज-कणग-वण्णा जे गहा जोइसंमि चारं चरति । केऊ य गइरइया । अट्ठावीसविहा य णक्खत- देवगणा । णाणासंठाण - संठियाओ पंखवण्णाओ ताराओ । ठियलेस्सा बारिणो य अविस्साम - मंडल गई। पत्ते यं णामंक - पागडियधि-मउडा | महिड्डिया जाव पज्जुवासंति ।
- ओव० सू५० / पृ० ५०
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} वे सुरूप, महर्द्धिक
उस काल और उस समय में भगवान् महावीर के समीप ज्योतिष्क देव प्रगट हुए । बृहस्पति, चंद्र, सूर्य, शुक्र, शनिश्चर, राहु, धूमकेतु, बुध और अंगारक = ( मंगल ) जो कितपत स्वर्णबिंदु के सामन वर्णं वाले हैं । एवं वे ग्रह - जो ज्योतिष्क में भूमण करते हैं । वे भगवान् महावीर के समीप प्रगट हुए ।
टिप्पण - 'जे य गहा' इस सूत्र में 'ज' पदसे बृहस्पति आदि 'नवग्रहों के सिवाय अन्य
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