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( २२३ ) जब भगवान महावीर स्थाणुसन्निवेश पधारे---उस समय शकेन्द्र भगवान के पास आया। पुष्प ने मित्तिकको खेदसे स्वयं के शास्त्रों को दूषण देते हुए पाया। शकेन्द्र ने भगवान् को वंदन-नमस्कार किया। तत्पश्चात् इन्द्र ने पुष्प से कहा- अरे मुर्ख ! तुम शास्त्र की निंदा क्यों करते हो। तुम अभी भगवान के बाह्य लक्षण को जानते हो-आभ्यंतर लक्षण को नहीं । परन्तु भगवान का मांस और रुधिर दुधकी तरह उज्ज्वल है और उनके मुख कमल का श्वास कमल की तरह सुगंधित है । ये तीन जगत के स्वामी धर्मचडा-जगत हितकारी है । इस प्रकार इन्द्र अपने स्थान चला गया ।
(च) तेणं कालेणं तेणं समएणं सक्के देविंदे देवराया वजपाणी एवं जहेव वितियउसए तहेव दिवेणं जाणविमाणेणं आगओ जाव जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जाव णम सित्ता ।
नेणं कालेणं तेणं समपणं उल्लुपयतीरेणाम णयरे होत्था/वण्णओ/ एगजंबूर चेहए, वण्णओ।
-----भग० श १६/उ५/प्र ५४/पृ० ७२०
ऊल्लुक तीर नगर में भगवान महावीर पधारे। उस समय में देवेन्द्र देवराज वज्रपाणि शकेन्द्र ---दिव्यमान विमान से वहाँ आया। और श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वंदन-नमस्कार कर इस प्रकार पूछा ।
(छ) xxx इमाई अठ्ठ उक्खित्तपसिणवागरणाइ पुच्छइ, इमाइ ०२ पुच्छित्ता संभंतियवंदणएणं वंदइ, संभंतिय० २ वंदित्ता तमेव दिव्वं जाणविमाणं दुरूहह, दुरूहित्ता जामेव दिसं पाउन्भूए तामेव दिसं पडिगए।
-भग० श १६/उ५ प्र ५४/पृ० ७२१ देवेन्द्र देवराज शक्र पूर्वोक्ति संक्षित आठ प्रश्न पूछकर उत्सुकतापूर्वक (शीघ्र ही) भगवान को वंदन-नमस्कार करके उस दिव्य यान-विमान पर चढ़कर जिस दिशा से आया था-उसी दिशा में चला गया ।
(ज) तेणं कालेणं तेणं समएणं विसाहा णाम णयरी होत्था/वण्णओ/ बहुपुत्तिए चेहए/षण्णओ/सामी समोसढे जाव पज्जुवासइ/तेणं कालेणं तेणं समएणं सक्के देविदे देवराया वजपाणी पुरंदरेएवं जहा सोलसमसए बिइयउद्देसप तहेव दिव्वेणं जाणविमाणेणं आगओ। णवरं एत्थं अभियोगा वि अत्यि, जाव बत्तीसइविहं णविहं उवदंसेइ उवदंसेत्ता जाव पडिगए।
-भग० श १८/०२/प्र ३८/पृ० ७५८
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