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५- तुम आराधक हो परन्तु विराधक नहीं हो ।
६ - तुम चरिम हो परन्तु अचरिम नहीं हो । अर्थात यह देव सम्बन्धी तुम्हारा अन्तिम भव है ।
तब वह सूर्याभदेव श्रमण भगवान् महावीर का उक्त कथन श्रवण कर हर्ष - सन्तोष को प्राप्त हुआ, चित्त में आनन्दित हुआ, परम शीतल हुआ - श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन नमस्कार किया | वंदन नमस्कार कर ऐसा कहने लगा
अहो भगवान् ! आप सब जानते हो, सब देखते हो ।
तब वह सूर्याभदेव श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार हाथ जोड़कर प्रदक्षिणा कर वन्दन - नमस्कार किया ।
वंदन- नमस्कार करके अपने परिवार के साथ परिवरा हुआ उस ही दिन गमन के विमान में बैठा, बैठकर जिस दिशा से आया था उस दिशा में वापस गया ।
. ३ गौतमादि श्रमण निर्ग्रन्थों को सूर्याभदेवद्वारा नाटक दिखाने की इच्छा-निवेदन तपणं से सूरिआ देवे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे चित्तमादिए परमसोमणस्सिए समणं भगवंतं महावीरं वंदति नमसति वंदित्ता नमसिन्ता एवं वयासी
तुम्भेणं त्ते ! सव्वं जाणह सव्वं पासह, सव्वओजाणह सव्वओ पासह, सव्वं कालंजाणह, सव्वं कालं पासह, सव्वे भावे जागह सव्वे भावे पासह । जाणंतिणं देवाशुप्पिया ! ममपुव्वि वा पच्छा वा ममएय रूवं दिव्वं देविड्ढि दिव्वं देवजुइ दिव्वं देवाणुभावं लद्ध पत्तं अभिसमण्णागयंति, तं इच्छामि णं देवाणुपियाणं भत्तिपुव्वगं गोयमातियाणं समणाणं निग्गंथाणं दिव्वं देविड्ढि दिव्वं देवजुरं दिव्वं देवाणुभावं दिव्वं बत्तीसति बद्ध नट्टविहं उवदंसित्तए ॥ ५४ ॥
तणं समणे भगवं महावीरे सूरियाभेणं देवेणं एवं बुत्ते समाणे सूरियाभस देवस एवमट्ठंणो आढातिणो परियाणति - तुसिणीए संविट्ठति ॥५५॥
प्रथम नाटक-तपणं ते बहवे देवकुमाराय देवकुमारीओय समणस्स भगवओ महावीरस्स सोत्थिय सिरिवच्छ - नंदियावत्त- वद्धमाणग-भद्दासणकलस-मच्छ-दप्पण-मंगलभत्तिचित्तं णामं दिव्वं नट्टविधि उवदति ||६६ ||
द्वितीय नाट्य तपणं ते बहवे देवकुमाराय देवकुमारीओय सममेव समोसरणं करेंति करिता तं चैव भाणियव्वं जाव दिव्वे देवरमणे पवत्ते या चि होत्था । तरणं ते बहवे देवकुमाराय देवकुमारीओय समणस्स भगवओ महाबीरस्स आवउ पश्चावउ- सेढि पसेढि - सोत्थिय - सोवत्थिय-पूस माणव- वद्धमाणग
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