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( २०६ ) सूर्याय देव के आभियोगिक देव-जहाँ जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र की आगलकप्पा नगरी का अंबसाल वन का चेत्य था-जहाँ श्रमण भगवान महावीर थे वहाँ आया। आकर श्रमण भगवान महावीर को तीन वक्त उठ बैठ हाथ-जोड़ प्रदक्षिणावर्त फिरा-इस प्रकार किया । इस प्रकार वंदन नमस्कार किया। वंदन, नमस्कार कर ऐसे कहने लगा-अहो भगवन् ! हम सूर्याभदेव के ओभियोगिक देव-देवानुप्रिय को वंदन करते है, नमस्कार करते हैं, सम्मान करते है, सत्कार करते है, आप कल्याणकारी है, मंगलकारी है, हम आपकी पर्यपासना करते है।
अहो देवानुप्रिय ! इस प्रकार आमंत्रण करके श्रमण भगवान महावीर कहते है१ तुम्हारा पुराने काल से चला आ रहा-यह कर्तव्य है। २ हे देवो ! यह तुम्हारा जीताचार है । ऐसा बहुत देव करते आये है । ३ अहो देवो ! यह तुम्हारा कर्तव्य है। ४ अहो ! देवो ! यह तुम्हारा कल्प है । ५ अहो ! देवो ! वंदना करने योग्य है । ६ अहो ! देवो ! इस वंदन-नमस्कार करने की मेरी आशा है ।
अन्य तीर्थंकरों ने भी ऐसा कहा है। अहो देव ! जो भवनपति, वाणव्यं तर, ज्योतिषी व वैमानिक देव है-वे सब अरिहंत भगवंत को वंदन करते हैं, नमस्कार करते है। वंदन-नमस्कार करने के बाद अपने नाम-गोत्र का उच्चारण करते है। इसलिये यह तुम्हारा पुराना कर्तव्य है यावत हमारी आज्ञा हो। अहो देवो! .२ सूर्याभिदेव का
(क) तएणं से सुरियाभे देवे चउहि अग्गमहिसीहिं जाच सोलंसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं अण्णेहिय बहूहिं सूरियाभविमाणवासीहि वेमाणिपहिं देवेहिं देवीहिय सद्धिं संपरिखुडे सचिड्ढीए जाच णादितरवेण जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता समणं भगवंतं महावीर तिक्खुत्तो आयाहिण पयाहियं करेति करित्ता वदंति नमंसति वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–'अहणंभंते ! सूरियाभे देवे देवाणुप्पियाणं वंदामि नंमंसामि जाव पज्जुवासामि ॥४९॥
सूरियाभाइ समणे भगवं महावीरे सूरियाभं देवं एवं वयासी--पोराणमेयं सूरियाभा। जीयमेयं सूरियाभा। किश्चमेयं सूरियाभा । करणिजमेयं सूरियाभा । आइण्णमेयं सूरियाभा । अभYण्णायमेयं सूरियाभा । जं णं भवणवइ-वाणमंतरजोइस-वेमाणिया देवा अरहते वंदंतिनमसंति वंदित्ता नमंसित्ता तओपच्छा साई साइं नामगोत्ताई साहिति तं पोराणमेयं सूरियाभा। जाप अभिणण्णामेयं सूरियाभा। तएणं से सूरियाभे देवे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते
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