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- वीरजि० संधि ३
अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर विपुलान्चल ( राजगृह ) से चलकर पृथ्वी पर विहार करते हुए एवं जनता के दुर्लक्ष्य दुष्कर्मों का अपहरण करते हुए पावापुर नामक उत्तम नगर में पहुँचे ।
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पावा- पुरवरू पत्तउ मणहरि । णव तरु- पल्लवि वणि बहु- सरवरि ॥ संठिउ पविमल रयण - सिलायलि । रायहमु णावइ पंकय-दस्ति || दोण्णि दियहँ पचिहारू मुएप्पिणु । सुक्क झाणु तिजउ झापप्पिणु ।।
उस नगर के समीप एक मनोहर वन था, जहाँ वृक्ष नये पल्लवों से अच्छादित थे और अनेक सरोवर थे ।
उस वन में भगवान् एक विशुद्ध रत्न - शिला पर विराजमान हुए ।
राजहंस कमल पत्र पर आसीन हो ।
वहाँ से उन्होंने दो दिन तक कोई विहार नहीं किया और वे तृतीय शुक्ल ध्यान में मग्न रहे ।
(घ) भगवान् का अंतिम बिहार पावापुरी -
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एयहं सहिउ जिणा हिउ विहरिचि
तीस वरिस भवियण तमुपहरेवि । वरषणे संपत्तउ सत्तभेय मुणिगण संजुत्तउ । तहि तणु सग्गेचिहाणे ठाइविं ।
सेसाई विकम्म विग्धादषि ॥
पावापुर
कत्तिय मासि चउत्थर जाम
गउ
कसण वदसि स्यणि विरामः । णिव्वाण ठाणे परमेसर तिल्लोकाहिउ वीरु जिणेसरु |
जैसे मानों एक
वड्ढच• संधि १० कड ४०
साधु-साध्वियों आदि सभी के साथ जिनानधिप - महावीर मे विहार किया तथा ३० वर्षों तक अपने उपदेशों से भव्यजनों के अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करते हुए वे वीर प्रभु सात प्रकार के संघ सहित पावापुरी के श्रेष्ठ उद्यान में पहुँचे ।
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