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प्रस्तावना
भगवान महावीर जैनधर्म के सीर्थ कर थे। किन्तु जैन ऐतिहासिक परंपरानुसार न तो वे जैन धर्म के आदि प्रवर्तक थे और न सदैव के लिए अन्तिम तीर्थ कर ।
अनादिकाल से धर्म के तीर्थकर होते रहे हैं और आगे भी होते रहेंगे। उनके द्वारा उपदिष्ट धर्म में अपने-अपने युगानुसार विशेषताएँ भी रहती हैं और उनके मौलिक स्वरूप में तालमेल भी बना रहता है ।
दिगम्बर परंपरानुसार केवल ज्ञानको प्राप्त कर भगवान महावीर मगध की राजधानी राजगृह में आकर विपुलाचल पर्वत पर विराजमान हुए। उनके समवसरण व सभामण्डप की रचना हुई, धर्म व्याख्यान सुनने के इच्छुक राजा व प्रजागण वहाँ एकत्र हुए और भगवान उन्हें तत्त्वों की, द्रव्यों की जानकारी दी तथा जीवन के सुखमय आदर्श प्राप्त करने हेतु गृहस्थों को अणुव्रतों एवं त्यागियों को महावतों का उपदेश दिया।
दिगम्बर परम्परानुसार आचारांग आदि बारह अंग साहित्य क्रमशः अपने मूलरूप में विलुप्त हो गया। महावीर-निर्वाण के पश्चात् १६२ वर्षों में आठ मुनियों को ही इन अंगों का सम्पूर्ण ज्ञान था। इनमें अतिम श्रुत केवली भद्रबाहु कहे गये हैं। तत्पश्चात् क्रमशः समस्त अंगों और पूर्वो' के ज्ञान में उत्तरोत्तर ह्रास होता गया और निर्वाण से सातवीं शती में ऐसी अवस्था उत्पन्न हो गयी कि केवल कुछ महामुनियों को ही इन अंगों व पों का आंशिक ज्ञान मात्र शेष रह गया जिसके आधार से समस्त जैन शास्त्रों व पुराणों की स्वतन्त्र रूप से नई शैली में विभिन्न देश कलानुसार प्रचलित प्राकृतादि भाषाओं में रचना की गयी।
पुरिमताल नगर के स्वामी वृषमसेन, सोमप्रभ व श्रेयांस नरेश्वर ने भगवान् ऋषभदेव से दीक्षा ग्रहण की। इस प्रकार ८४ राजा ऋषभ तीर्थ कर के गणधर थे।
भगवान महावीर ने निश्चय और व्यवहार की सापेक्षता का प्रतिपादन करते हुए कहा-मनुष्य स्थूल जगत में जीता है, पर वही अंतिम सत्य नहीं है। उसे समस्त सत्य की खोज का प्रयत्न निरंतर चालू रखना चाहिए ।
भगवान महावीर सत्य द्रष्टा थे। उन्होंने सत्य को जाना, समझा और उसका प्रयोग किया। उन्होंने जिस सत्य को अभिव्यक्ति दी, उसके पीछे समत्व की भावना काम कर रही थी। समतावादी दर्शन अभिव्यक्ति में जितना सहज और सरल है, प्रयोग के लिए उतना ही कठिन है। भगवान महावीर ने इस गुढ दर्शन को आत्मसात किया, क्योंकि वे जितमे गहरे दार्शनिक थे, व्यावहारिक भी उससे कम नहीं थे । उन्होंने दर्शन
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