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( १३० ) हे भगवन् ! पुत्र की तरह आपको देखकर इस देवानंदा की दृष्टि देववधु की तरह निर्निमेष कैसे हो गई। भगवान श्री वीरप्रभु मेघ के समान गंभीर वाणी से बोले
हे देवानुप्रिय गौतम ! मैं इस देवानंदा की कुक्षि में उत्पन्न हुआ हूँ। देवलोक में से च्यवनकर मैं इस कुक्षि में बवासी रात्रि रहा हूँ-इससे परमार्थ को नहीं जानने के कारण वह हमारे पर वत्सल्य भाव रखती है ।
भगवान् के इस प्रकार के वचन सुनकर (जिनको पूर्व में नहीं सुना था-) देवानंदा ऋषभदत्त सर्व परिषद् विस्मय को प्राप्त हुई। इस तीन जगत के स्वामी पुत्र कहाँ। और एक सामान्य गृहस्थाश्रमी कहाँ। ऐसा विचार उन दंपतियों ने उठकर फिर भगवान को वंदन-नमस्कार किया। माता-पिता को प्रतिबोध होना दुर्लभ है। भगवान ने उन्हें तथा अन्य लोगों को उद्देश्य कर देशना दी।
(घ) तरण से उसभदत्तेमाहणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्म सोच्चा णिसम्महतुट्ठ उहाए उ? इ, उदृत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो x x x नमंसित्ता एवं वदासी-एवमेयं भंते! तहमेयं भंते ! जहा खंदओ जाव सेजहेयं तुम्भेवदहत्तिकहु उत्तरपुरस्थिमंदिसीभार्ग अवक्कमति, अवक्कमित्ता सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुयइ, ओमुइत्ता सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, करेत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरे तिक्खुत्तो आयाहिण-पायाहिणं करेइ, xxx नमंसित्ता एवं वयासी- आलित्तेणं भंते ! लोए, पलिते णं भंते। लोए, आलित्त-पलित्तेणं भंते ! लोए जराए मरणेण य ||१५०॥ एवं एएणं कमेणं जहाखंदओ तहेव पवइओ जाव सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ xxx बहूहिं चउत्थ-छ?-ट्ठम-दसम xxx विचित्तेहि तवोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणे बहूई वासाइ सामण्णपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेइ, झूसित्ता सढिभत्ताइ अणसणाए छेदेइ, छेदित्ता जस्सट्टाए कीरति, णग्गभावे जावतमढ आराहेइ आराहेत्ता xxx सव्वदुक्खप्पहीणे ॥१५१॥
श्रमण भगवान महावीर स्वामी के पास धर्म श्रवण कर और हृदय में धारण करके ऋषभदत्त ब्राह्मग बड़ा प्रसन्न हुआ, तुष्ट हुआ। उसने खड़े होकर श्रमण भगवान महावीर स्वामी को तीन बार प्रदक्षिणा की यावत् नमस्कार किया । और इस प्रकार निवेदन किया कि 'हे भगवन् ! आपका कथन यथार्थ है। जो आप कहते हैं, वह उसी प्रकार है। इस प्रकार कहकर ऋषभदत्त ब्राह्मण ईशान कोण की ओर गया और स्वयमेव आभरण, माला और अलंकारों को उतार दिया। फिर स्वयं पंचमुष्टि लोच किया ।
भगवान् ने ऋषभदत्त को दीक्षित किया। मुनि ऋषभदत्त ने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। अंत में एक मास की संलेखनाकर, साठ भक्त का अनशन कर सर्व दुःख का अंत किया।
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