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( १२४ )
म भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आग्राहिण-पयाहिणं करेंति, २त्ता वंदति णमं संति वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी
"सुयक्खाए ते भंते! निग्गंथे पाययणे xxx किमंग पुण एत्तो उत्तरतरं ? एवं वंदित्ता जामेव दिसं पाउन्भूयाओ तामेव दिसं पडिगयाओ ।
- ओव० सू० ८१५०७८, ७६
तब सुभद्रा प्रमुख देवियाँ, श्रमण भगवान महावीर के समीप धर्म को सुनकर, हृदय मैं धारण कर, हर्षित, संतुष्ट, यावत् विकसित हृदय हुई और उठ खड़ी हुई ।
श्रमण भगवान् महावीर की तीन बार आदक्षिणा, प्रदक्षिणा की, वन्दना की ओर नमस्कार किया। फिर इस प्रकार बोली
भंते! आपने निर्ग्रन्थ प्रवचन सुन्दर रूप से कहा I इसी प्रकार सुप्रज्ञप्त ( = विशेषता युक्त उत्तम रीति से कहा हुआ ), सुभाषित ( = सुन्दर भाषा में कहा हुआ ), सुविनीत, ( = शिष्यों में उत्तम विनियोजित ) सुभावित, ( तत्त्व कथन उत्तम भावयुक्त बना हुआ ) और अनुत्तर ( = सर्वोत्तम ) है । भंते! जड़-चेतन की ग्रंथियों का मोचक है, आपका उपदेश |
नहीं है अन्य कोई श्रमण या माहण - - जो ऐसा धर्म कह सके । धर्म का उपदेश कौन दे सकता है । अर्थात् कोई नहीं ।
इस प्रकार जिस दिशा से आये थे, उसी दिशा में वापिस गये ।
(ड) भगवान् महावीर और जनमानस का आगमन
• १ ऋषभदत्त और देवानंदा
(क) तेणं कालेणं तेणं समरणं माहणकुंडग्गामे णयरे होत्था - वण्णओ । बहुसालए चेइए - वण्णओ / तत्यगं माहणकुंङग्गामे णयरे उसभदत्ते णामं माहणे परिवस - अड्डे, दित्ते, वित्ते जाव बहुजणस्स अपरिभूप; रिव्वेदजजुव्वेद सामवेद अथवणवेद जहा खंदओ । जाव अण्णेसु य बहसु भरसु नयेसु सुपरिणिट्टिए समणोवासए अभिगयजीवाजीवे उवलद्धपुण्ण-पावे जाव अप्पाणं भात्रेमाणे विहरण | तस्स उसभदत्तस्स माहणस्स देवानंदा णामं माहणी होत्था, सुकुमालपाणि- पायाजाच पियदसणा, समणोवासिया अभिगयजीवाजीवा उवलद्धपुण्णपावा जाव
सुरुवा विहरइ ॥१३७॥
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तो फिर इससे श्रेष्ठ
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