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( ११२ ) देवाणुप्पिया। समणे भगवं महावीरे, आइगरे तित्थगरे, सयंसंबुद्ध, पुरिसुत्तमे जाव संपाविउकामे, पुव्वाणुपुत्विं चरमाणे, गामाणुगाम दूइजमाणे, इहमागए, इह संपत्ते, इह समोसढे ; इहेव चम्पाए णयरीए बाहिं पुण्णभहे चेइए अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ'।।
-ओव० सू ५२ उस काल उस समय में चंपानगरी थी। बहुत से मनुष्य एक दूसरे को इस प्रकार सामान्य रूप से कहते थे' विशेष रूप से कहते थे। प्रकट रूप से एक ही प्राशय को भिन्न-भिन्न शब्दों के द्वारा प्रकट करते थे। इस प्रकार कार्य-कारण की व्याख्या सहित तर्क युक्त कथन करते थे—हे देवानुप्रिय ! बात ऐसी है कि-श्रमण भगवान महावीर जो कि स्वयं-संबुद्ध आदि कर्ता और तीर्थकर है, पुरुषोत्तम है यावत सिद्धि गति रूप स्थान की प्राप्ति के लिए प्रवृत्ति करने वाले हैं-वे क्रमशः विचरण करते हुए, एक गाँव से दूसरे गाँव को पावन करते हुए यहाँ पधारे हैं, यहाँ ठहरे हैं, यहाँ विराजमान है ।
___ इसी प्रकार चंपानगरी के बाहर, पूर्णभद्र चैत्य में, संयमियों के योग्य स्थान को ग्रहण करके, संयम और तप से भावित आत्म विहार कर रहे हैं । (ड) मनुष्य परिषद्
तं महफ्फल खलुभो देवाणुप्पिया ! तहारूवाण अरहताणं भगवंताणं णामगोयस्स वि सवणयाए, किमंग पुण अभिगमण-वंदण-णमंसण-पडिपुच्छणपज्जुवासणयाए।
एगस्सवि आयरियस्स धम्मियस्स सुवयणस्स सवणायए, किमंग पुण विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए ?
तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया! समणं भगवं महावीरे, वंदामो णमंसामो सक्कारेमो सम्माणेमो, कल्लाणं मंगलं देवयं बेइयं (विणएणं) पज्जुवासामो।
एयणे पेञ्चमवे इहभवे य हियाए सुहाए खमाए निस्सेयसाए आणुगामियत्ताए भविस्सइ ।
-ओव० सू ५२ हे देवानुप्रिय ! तथा रूप-महाफल की प्राप्ति कराने रूप स्वभाव वाले अर्थात अरिहंत के गुणों से युक्त अर्हन्त भगवान के नाम (पहचान के लिए बनी हुई लोक में रूढ संज्ञा) गोत्र ( गुण के अनुसार दिया हुआ नाम) को भी सुनने से महत फल की प्राप्त होती है । तो फिर पासमें जाने से, स्तुति करने से, नमस्कार करनेसे, संयम यात्रादि की समाधि पृच्छा करने से और उनकी सेवा करने से होने वाले फल की तो बात ही क्या ? अर्थात निश्चय ही महत फल की प्राप्ति होती है ।
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