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(EE ) खलु देवाणुप्पिया! अज खत्तियकुंडग्गामे णयरे इंदमहे इ वा, जाब णिग्गच्छंति, एवं खलु देवाणुप्पिया। अज समणे भगवं महावीरे जाव सव्वण्णू सध्वदरिसी माइणकुंडग्गामस्स णयरस्स बहिया बहुसालए चेइए अहापडिरूवं ओग्गहं जाप विहरइ।
तएणं एए बहवे उग्गा भोगा जाव अप्पेगइया वंदणवत्तियं जाव णिग्गच्छति । (तएणं जमाली खत्तियकुमारे कंचुइपुरिसस्स अंतियं एयं असोचा णिसम्म हट्ठ-तु? कोडुबियपुरिसे सहावेइ, सहावेत्ता एवं वयासीखिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! चाउग्घंटे आसरह जुत्तामेव उवट्टवेह, उवद्ववेत्ता मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह ।
तएणं ते कोडुंबियपुरिसा जमालिणा खत्तियकुमारेणं एवं वुत्ता समाणा जाव पच्चप्पिणंति।
- -भग० श० ६/उ३३/सू १५८ से १६१
बहुत से मनुष्यों के शब्द और कोलाहल सुनकर और अवधारण कर क्षत्रियकुमार जमाली के मन में इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ कि
"क्या क्षत्रियकुंडग्राम नगर में इन्द्र का उत्सव है, स्कंद का उत्सव हैं, वासुदेव का उत्सव है, नाग का उत्सव है, यक्ष का उत्सव है, भूत का उत्सव है, कूप का उत्सव है, तालाब का उत्सव है नदी का उत्सव है, द्रह का उत्सव है, पर्वत का उत्सव है, वृक्ष का उत्सव है, चैत्य का उत्सव है या स्तुप का उत्सव है, कि जिससे ये सब उग्रकुल, भोगकुल, राजन्यकुल, इक्ष्वाकुकुल, ज्ञातकुल और कुरुवंश-इन सबके क्षत्रिय, क्षत्रियपुत्र, भट और भटपुत्र इत्यादि औपपातिक सूत्र में कहे अनुसार यावत् सार्थवाह प्रमुख, स्नानादि करके यावत बाहर निकलते हैं-इस प्रकार विचार करके जमाली क्षत्रियकुमार ने कञ्चुकी ( सेवक) को बुलाया और इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रिय ! क्या आज क्षत्रियकुंडग्राम नामक नगर के बाहर इन्द्र आदि का उत्सव है, जिससे ये सब लोग बाहर जा रहे हैं।"
जमाली क्षत्रियकुमार के इस प्रश्न को सुनकर वह कंचुकी पुरुष हर्षित एवं संतुष्ट हुआ।
श्रमण भगवान महावीर के आगमन का निश्चय करके उसने हाथ जोड़कर जमाली क्षत्रियकुमार को जय-विजय शब्दों द्वारा बधाया ।
तदनन्तर उसने इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रिय । आज क्षत्रियकुंडग्राम नामक नगर के बाहर इन्द्र आदि का उत्सब नहीं है किन्तु सर्वज्ञ, सर्वदर्शी श्रमण भगवान महावीर स्वामी
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