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( ६५ ) दुरुहर दूरुहिता सकोरंटमल्लदामेण छत्तेण धरिजमाणेण, ओवषाइयगमेण णेयध्वं जाव पज्जुषासइ ।
एवं चेल्लणादेवी जाप महत्तरगपडिनिक्खित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समण भगवं महावीरं वंदर नमंसह सेणियं रायं पुरओ काउ ठिइया चेव जाव पज्जुवासइ ।
-दसासु० दसा १०/सू०१० रथ के आ जाने पर भंमसार श्रेणिक राजा यानशालिक के मुख से 'धार्मिक रथ तैयार है' ऐसा वृत्तान्त सुनकर हर्षित और संतुष्ट हुए । और स्नानघर में पहुंचे ।
वहाँ स्नान कर अच्छे वस्त्र और आभूषण पहने तथा कल्पवृक्ष के समान सुशोभित होकर बाहर निकले, फिर चेल्लणा देवी के पास आये और कहने लगे कि-हे देवानुप्रिय ! धर्म की प्रवर्त्तना करने वाले और चारतीर्थों की स्थापना करने वाले भगवान महावीर ग्रामानुग्राम विहार करते हुए गुणशिल उद्यान में पधारे हैं और तप-संयम से अपनी आत्मा को मावित करते हुए विचरते हैं ।
हे देवानुप्रिये ! तथारूप अर्थात् तप और संयम से युक्त, केवलज्ञान और केवलदर्शन के धरनेवाले अहन्त भगवान के नाम-गोत्र आदि के सुनने से ही कर्म-निर्जरा रूप महाकाल होता है तो उनके अभिगमन-सामने जाने, वन्दन-नमस्कार करने, प्रश्न पूछने और उनकी पर्युपासना-सेवा आदि करने से जो फल होता है उसका तो कहना ही क्या । अतः हे देवानुप्रिये ! अपने भगवान के पास चले और श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दन ( स्तुति) करें, नमस्कार करें, आदर करें, सम्मान करे।
वे भगवान कल्याण-मोक्ष देने वाले होने से कल्याणरूप हैं। सर्वहित की प्राप्ति करानेवाले होने से मंगलरूप हैं। भब्यों को आराधना करने योग्य होने से देवस्वरूप है। सम्यगबोध देने वाले होने से ज्ञानस्वरूप है, उन भगवान की पर्युपासना-सेवा करे।
भगवान के दर्शन आदि, हम लोगों के हिताय-इहलोक और परलोक में हित के लिए, सुख के लिए, भवसागर तैरने में सामर्थ्य के लिए, मोक्ष के लिए, और यावद भवभव में सुख के लिए होगा।
इस प्रकार चेल्लणा रानी अपने पति राजा श्रेणिक से भाग्य को उदय करने वाले भगवान के बागमन रूप वचन सुनकर हर्षित और संतुष्ट हुई। और उसने राजा के वचन को स्वीकार किया।
तब श्रेणिक राजा चेल्लणा देवी के साथ प्रधान धार्मिक रथ पर चढ़े। कोरण्ट पुष्पों की माला से युक्त छत्र को धराते हुए यावत् भगवान के पास गये और सेवा करने लगे।
विशेष वर्णन औपपातिक सूत्र से जानना चाहिए ।
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