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पुद्गल-कोश
६१९ __विवेचन-इनमें वर्ण, गंध, रस, स्पर्श-ये पुद्गल द्रव्य के गुण हैं तथा संस्थानसंघातादि व शब्द के भेद या वर्णादि भेद पुद्गल द्रव्य की अनेक पर्याय है। अयोगी केवली के सिवाय अन्य जीव स्थूल शरीर सहित अवस्था में आहारक होते हैं । '८६ जीव और कर्म द्रव्यवर्गणा के पुद्गल
जह पुग्गलवव्वाणं बहुप्पयारेहि खंणिवत्ती। अकदा परेहि बिट्टा तह कम्माणं वियाणाहि ॥
-पंच० श्लो० ६६ टोका-यथा हि स्वयोग्यचंद्राप्रभोपलंभे संध्याघ्रद्र चापपरिवेषप्रभृतिभिर्बहुभिः प्रकारः पुद्गलस्कंधविकल्पाः कर्व तरनिरपेक्षा एवोत्पद्यते। तथा स्वयोग्यजीवपरिणामोपलंभे ज्ञानावरणप्रभृतिभिर्बहुभिः प्रकारः कर्माण्यपि कर्व तरनिपेक्षाण्येवोत्पद्यते।
जिस प्रकार पुदगल द्रब्यों के नाना प्रकार के भेदों से स्कंधों की परिणति देखी जाती है- अन्य द्रव्यों के द्वारा स्कंधों की परिणति नहीं की जाती है वैसे ही कर्मों की विचित्रता के विषय में समझना चाहिए। अर्थात् जिस प्रकार चन्द्रमा या सूर्य की प्रभा का निमित्त पाकर संध्या के समय आकाश में अनेक वर्ण, बादल, इन्द्रधनुष, मंडलादिक नाना प्रकार के पुदगल स्कंध अन्यतर बिना किये ही अपनी शक्ति से अनेक प्रकार होकर परिणमते हैं उसी प्रकार जीव द्रव्य के अशुद्ध चेतनात्मक भावों का निमित्त पाकर पुद्गल वर्गणायें अपनी ही शक्ति से ज्ञानावरणादि आठ प्रकार के कर्म रूप में परिणत होती है। ८७ विलसा पुद्गल और दृष्टांत विस्रसानिष्पन्नं त्वम्र-न्द्रधनुरादि ।xxx
-विशेभा• गा २६६७ । टीका अभ्र, इन्द्रधनुषादि-विस्रसानिष्पन्न द्रव्य है ।
जं जाहे जं भावं परिणमइतयं तया तओऽणन्न । परिणइमेतविसिटुं दव्वं चिय जाणइ जिणिदो॥
-विशेभा• गा २६६८ टीका-इह यद् घटे-न्द्रधनुरादि द्रव्यं यदा यस्मिन् काले यं रक्तश्वेताविभावं पर्यायं परिणमति प्राप्नोति तत् तदा ततः पर्यायादनन्यदभिन्न
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