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पुद्गल-कोश के जीव वर्ण में कृष्ण वर्ण और नील वर्ण, गंध में दुरभिगंध, रस में कटु-तीखा रस, स्पर्श में कर्कश, गुरु-शीत-रूक्ष का आहार ग्रहण करते हैं। उन गृहीत पुद्गलों से सड़ाकर खराब करके, पूर्व के वर्णादिक गुणों से विपरीत करके ये खराब वर्णादि उत्पन्न कर फिर ग्रहण किये हुए पुद्गलों का आहार ग्रहण करते हैं।
जिस नाम कर्म के उदय से जीव की चाल ( चलना), हाथी या बैल की चाल के समान शुभ अथवा ऊंट या गधे की चाल के समान अशुभ होती है उसे विहायोगति कहते है। जिससे चाल के अर्थ में गति शब्द को समझा जाय न कि देवगति, नरकगति आदि के अर्थ में। '८० स्कंध और अवगाहन क्षेत्र आकाश के एक प्रदेश पर अनंत प्रदेशी स्कंध अवगाहित कर रह सकता है
(क) x x x विशिष्टावगाह परिणामादेकपरमाणुपरिमाणोऽनन्तपरमाणुस्कंधः परमाणोरनंशत्वात् पुनप्यनन्तांशत्वं न साधयति x x x।
--प्रव० अ २ । गा ४७ । टीका (ख) आगासमणुणिविट्ठ आगासपदेससण्णया भणिदं । सम्वेसि च अणूणं सक्कदि तं देदुमवगास ॥
-प्रव. अ२। गा ४८ टोका-आकाशस्यकाणुव्याप्योंऽशः किलाकाशप्रदेशः, स खल्वेकोऽपि शेषपंचद्रव्यप्रदेशानां परमसौक्ष्मपरिणतानन्तपरमाणुस्कंधानां चावकाशदानसमर्थः।
(ग) अत्र चाविशेषोक्तादपि परमाणूनामेकप्रदेश एवावस्थानात् स्कंधविषयव भजना द्रष्टव्या, ते हि विचित्रत्वात् परिणतेर्बहुतरप्रदेशोपचिता अपि केचिदेकप्रदेशे तिष्ठन्ति, युदुक्तम्-एगेणवि से पुण्णे दोहिवि पुण्ण सयंपि माइज्जे 'त्यादि' अन्ये तु संख्येयेपु च प्रदेशेषु यावत् सकललोकेऽपि तथाविधचित्त महास्कन्धवद् भवेयुरिति भजनीया उच्चन्ते ।
-वृहद्वृत्ति० प ६७४ (घ) एकत्तण पुहत्तण-खंधा य परमाणु य। लोएगदेसे लोए य, भइयव्वा ते उ खेत्तओ॥
-उत्त० ३६ । गा १०
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