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पुद्गल-कोश
५४५ शरीर, अभ्र, इन्द्रधनुष आदि में करण संज्ञा नहीं है तथापि प्रयोग-विस्रसाजनित करण क्रिया होती है अतः उस अपेक्षा से उनका करणपन विरुद्ध नहीं है। उनमें अजीव द्रव्यों के विस्रसाकरण सादि-अनादि रूप हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, सघातना करण अर्थात् प्रदेशों का परस्पर एकत्र अवस्थान रूप करण अनादि रूप जानना चाहिए। कृत वस्तु का जो करण कहा जाता है वह आदि ही होता है, जैसे घट, कट, शकटादि । •७२ स्कंध पुदगल और भाव करण
अवरप्प ओगजं जं अजीवरूवाइपज्जयावत्थं । तमजीवभावकरण तप्पज्जायप्पणावेक्ख ॥
-विशेभा० गा ३३५२ टीका-परप्रयोगाज्जातं परप्रयोगजंन परप्रयोगजमपरप्रयोगजं स्वाभाविकमित्यर्थः। यद्पर प्रयोगजं तदजीवभावकरणमिति संबंधः। कथंभूतम् ? इत्याह –'अजीवरूवाइपज्जयावत्थ ति' अजीवानामभेन्द्रधनुरादीनां रूपादिपर्यायाः अजीवरूपादिपर्यायास्त एवावस्था स्वरूपं यस्याजीवभावकरणस्य तदजीवरूपादिपर्यायावस्थम। परप्रयोगमन्तरेणव यदभ्राद्यजीवानां स्वाभाविक रूप-रस-गंध-स्पशसंस्थानादिपर्यायकरणं तदजीव भावकरणमित्यर्थः।
जो पर प्रयोग के सिवाय उत्पन्न हुए इन्द्रधनुषादि-अजीव के रूपादि की पर्यायों की अवस्था है तथा उस पर्याय की अपेक्षा-अजीव भाव करण है अर्थात् वह पर प्रयोग के बिना स्वाभाविक उत्पन्न हुए अभ्रादि अजीव भाव करण है तथा अजीव भाव करण रूप-रस-गंध-स्पर्श-संस्थानादि पर्याय रूप है । •७३ स्कंध और कर्म .१ पुद्गल और ईर्यापथकर्म
अप्पं बादर मवुअं बहुअं ल्हुक्खं च सुक्किलं चेव । मंदं महव्वयं पि य सादग्भहिय च तं कम्मं ॥२॥
--षट्० खण्ड ५ । भा ४ । सू २४ में उद्धृत । पु १३ । पृ० ४८ वह ईर्यापथ कर्म अल्प है, बादर है, मृदु है, बहुत है, रूक्ष है, शुक्ल, मंद अर्थात् मधुर है, महान व्ययवाला है और अत्यधिक सात रूप है ।
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