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पुद्गल-कोश
४७५ द्रव्यान्तर से आक्रांत होने पर जिसकी गति होती है उसे प्राग्भार गति कहते हैं । - यथा-नाव आदि की द्रव्यान्तर से आक्रांत होने पर अधोगति होती है । ६ देव और निक्षिप्त पुद्गल गति
इह लेष्ट्वादिकं पुद्गलं क्षिप्तं गच्छन्तं क्षेपक मनुष्यस्तावद् ग्रहीतुन शक्नोतीति दृश्यते, देवस्तु किं शक्नोति ? येन शक्रण वज्ज क्षिप्तं संहृतं च।
- भग० श ३ । उ २ । सू २३ । टीका
सामान्यतः कोई पुरुष पत्थर आदि को तीव्र गति से फेंक कर उसके पीछे दौड़ कर उसे पकड़ नहीं सकता है-ऐसा देखा जाता है, परन्तु देव फेंके हुए पदार्थ के पीछे जाकर उसे पकड़ सकते हैं ? उदाहरणतः शकेन्द्र ने अपने द्वारा अति तीव्र निक्षिप्त वज्र को उसके पीछे दौड़ कर पकड़ लिया था। •७ स्कंध पुद्गल और गति
( मूल पाठ के लिए देखो-क्रमांक १२.८ ) द्विप्रदेशी स्कंध यावत् दस प्रदेशी स्कंध यावत् संख्यात प्रदेशी स्कंध यावत् असंख्यात प्रदेशी स्कंध यावत् अनंत प्रदेशी स्कंध की गति अनुश्रेणी होती है परन्तु विश्रेणी नहीं होती है। '८ पुद्गल और क्रिया
पुद्गलजीववतिनी या विशेष क्रिया देशान्तर प्राप्तिलक्षणा तस्या प्रतिषेधोऽयम्, नोत्पादादिसामान्यक्रियायाः।
-तत्त्व० अ ५ सू ६ । की सिद्ध सेनीय टीका में पुद्गल और जीव देशान्तर क्रिया करते हैं। धर्म, अधर्म व आकाश- ये तीनों परिस्पंदन देशान्तर प्राप्ति आदि क्रिया विशेष नहीं कर सकते हैं। उत्पाद-व्ययादि सामान्य क्रिया का प्रतिषेध नहीं है । कार्मणशरीरालंबनात्मप्रदेश परिस्पंदनरूपा क्रिया।
- तत्त्व श्लो० अ २ सू २५ कार्मण शरीर के संबंध से जीवात्मा के प्रदेशों में परिस्पंदन होता है अतः जीव को क्रियावंत कहा गया है। यह कंपन कर्म स्कंध पुद्गल के संयोग से होता है।
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