________________
पुद्गल-कोश
१२७ वड्डोओ होंति। तासि परूवणा जहा भावविहाणे कदा तहा कायब्वा । सट्टाणस्स वि असंखेज्जलोगमेत्ताणि हाणाणि होति । तेसि पि एवं चेव परूवणा कायव्वा ।
-षट्० खण्ड० ६ । द्वा १९ । पु १६ । पृ० ५१४-५१५
नयमनय के विषय स्वरूप से सब द्रव्य पुद्गल है । आत्त शब्द का अर्थ गृहीत है। अतएव "आत्ताः पुद्गलाः पुद्गलात्ता" इस विग्रह के अनुसार यहाँ पुद्गलात्त पद से आत्मसात किये गये पुद्गलों का ग्रहण है। ये पुद्गल छः प्रकार से आत्मसात् किये जाते है। यथा-ग्रहण से, परिणाम से, उपभोग से, आहार से, ममत्व से और परिग्रह से । इनकी विभाषा इस प्रकार है
१-जो दण्डादि पुद्गल हाथ और पैर से ग्रहण किये जाते हैं—वे ग्रहण से आत्त पुद्गल कहलाते हैं।
२-मिथ्यात्व आदि परिणामों के द्वारा जो पुद्गल अपने किये गये हैं वे परिणाम से आत्त पुद्गल कहे जाते हैं ।
३-जो गंध और ताम्बुल आदि पुद्गल उपभोग स्वरूप से अपने किये गये हैं उन्हें उपभोग मे आत्त पुद्गल समझना चाहिए ।
४–भोजन-पान आदि के विधान से जो पुदगल अपने किये गये हैं, उन्हें आहार से आत्त पुद्गल कहते हैं ।
५-जो पुद्गल अनुराग से गृहीत होते हैं वे ममत्व से आत्त पुद्गल है । ६-जो आत्माधीन पुद्गल है उनका नाम परिग्रह से आत्त पुद्गल है ।
अथवा 'अत्त' का अर्थ आत्मा अर्थात् स्वरूप है। अतएव 'पोग्गलाण अत्ता पोग्गल अत्ताः इस विग्रह के अनुसार पुद्गलात्त' (पुद्गलात्मा) पद से पुद्गलों का रूप, रस, गंध व स्पर्श आदि रूप लक्षण विवक्षित है। उन रूपादिकों के अनंतभागवृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनंतगुणवृद्धि ये छः वृद्धियां होती है। उनकी प्ररूपणा जैसे भावविधान में की गयी है वैसे करना चाहिए। स्वस्थान के भी असंख्यात लोकमात्र स्थान होते हैं । उनकी भी इसी प्रकार से प्ररूपणा करनी चाहिए।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org