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पुद्गल - कोश
जो उवसमसम्मद्दिट्ठी उवसमसेढीए कालं करेइ सो पढमसमए चेव सम्मत्तपुंजं उदयावलियाए छोढून सम्मत्तपुग्गले वेएइ, तेण न उवसमसम्महिट्ठी अपज्जत्तगो लब्भइ ।
जब उपशमसम्यग्दृष्टि जीव उपशमश्रेणी में काल को प्राप्त होता है तब प्रथम समय में सम्यक्त्व पुंज को उदयावली में लाकर सम्यक्त्व पुद्गलों का वेदन करता है अतः यह अपर्याप्तक उपशमसम्यग्दृष्टि के नहीं होता है ।
यथा -- उपशम श्रेणी में काल करनेवाला जीव अनुत्तरविमान के देवों में भी उत्पन्न होता है वहाँ वह जीव उपशमसम्यक्त्व के पुद्गलों के उदय से क्षयोपशम सम्यक्त्व को प्रथम समय में ही प्राप्त करता है ।
•०४.९६ सम्मत्तसुद्धयुग्गलपरिक्खए ( सम्यक्त्व शुद्ध पुद्गलपरिक्षय )
सम्यक्त्वमोहनीय कर्म के शुद्ध पुद्गलों का परिक्षय ।
मूल - जइ सुद्धजलाणुगयं वत्थं सुद्ध जलक्ख एसुतरं । सम्मत्तसुद्धपोग्गल परिक्खए दंसणं पेवं ॥
- विशेभा० गा १३२१
जिस प्रकार शुद्ध जल से धोया हुआ वस्त्र सूख जाने सम्यक्त्व मोहनीय रूप शुद्ध पुद्गलों का क्षय होने से होता है ।
०४.९७ सरपरिणदपोग्गलाणि ( स्वरपरिणतपुद्गल )
से शुद्ध होता है उसी प्रकार सम्यग्दर्शन और भी शुद्ध
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स्वर रूप से परिणत पुद्गल ।
स्वरनामकर्म के उदय से नोकर्मरूप - सुस्वर - दुःस्वर रूप में परिणत हुए पुद्गल
परमाणु ।
०४९८ सव्वपोग्गला ( सर्वपुद्गल )
— गोक० गा ८३
- भग० श ५ । उ ८ । प्र २ । पृ० ४८६
'सव्वपोग्गला' अर्थात् लोक में स्थित सर्वपुद्गल ।
यहाँ लोक में स्थित सर्वपुद्गलों के सम्बन्ध में समवाय रूप से विभिन्न अपेक्षा से विवेचन किया गया है । यथा - वे सप्रदेशी भी हैं, अप्रदेशी भी हैं इत्यादि ।
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