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पुद्गल-कोश परिवर्तः, स च यावता कालेन भवति स कालोऽपि पुद्गलपरिवर्तः, स चानन्तोत्सपिण्यवसपिणीरूप इति ।
आहारक शरीर के पुद्गलों को बाद देकर अन्य ग्रहण योग्य पुद्गलों को जब एक जीव समस्त भाव से अर्थात् सब को स्पर्श कर लेता है उसे 'पुद्गलपरावर्त' कहते हैं। यह स्पर्श कार्य जितने समय में होता है वह काल भी 'पुद्गलपरावर्त' कहा जाता है तथा इसमें अनंत उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी जितना काल लग जाता है।
मूल-एएसि णं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं साहणणा-भेदाणुवाएणं अणंताणता पोग्गलपरियट्टा समणुगंतव्वा भवंतीति मक्खाया? हंता, गोयमा! एएसि णं परमाणुपोग्गलाणं साहणणा- जाव मक्खाया।
- भग० श १२ । उ ४ । प्र १३ । पृ० ६६० टोका-"पुग्गलपरियट्ट ति" पुद्गलः पुद्गलद्रव्यैः सह परिवर्ताः परमाणूनां मीलनानि पुद्गलपरिवर्ताः समनुगन्तव्या अवगन्तव्या भवन्ति ।
पुद्गलों के द्वारा पुद्गल द्रव्यों के साथ परावर्त-पुद्गलपरावर्त । एक परमाणु का अन्य अनंत परमाणुओं के साथ संयोग-वियोग-एक पुद्गलपरावर्त । .०४.७० पोग्गलपरिसाड (पुद्गलपरिशाट)
-अभिधा० भाग ५ । पृ० १११८ करण प्रेरण से होने वाले पुद्गलों का परिशाटन अर्थात् पुद्गलों का परित्याग करना-छोड़ना। अभिधा. परिदत्त संदर्भ-कर्मप्रकृति २ प्रक० ( गाथा ९४ ) .०४.७१ पोग्गलपिडो (पुद्गलपिंड)
-गोक० । गा ६ पोग्गलपिंडो धन्वं तस्ससी भावकम्मं तु ॥ पुद्गल द्रव्य का पिंड-पुद्गलपिंड ।
यहाँ ज्ञानावरणादि रूप पुद्गल द्रव्य के पिण्ड को द्रव्यकर्म कहा गया है और इस पिण्ड में फल देने की शक्ति को भावकर्म कहा गया है। .०४.७२ पोग्गलमेत्तविलयम्मि (पुद्गलमात्रविलय)
विशेभा० गा १८३९
पुद्गल मात्र का वियोग ।
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