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श्री कस्तूरभाई ने प्राथमिक शिक्षा नगरपालिका द्वारा संचालित एक शाला में प्राप्त की और वे १९११ में आर० सी० हाईस्कूल से मेट्रिक्युलेशन की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए। जिस समय वे चौथी कथा में थे उस समय चल रहे स्वदेशी आन्दोलत का उनके चित्त पर गहरा प्रभाव पड़ा। मेट्रिक के पश्चात् उन्होंने गुजरात कालेज में प्रवेश प्राप्त किया किन्तु कालेज जीवन के प्रथम छः महीने में ही सन् १९१२ में पिताजी का देहान्त हो जाने से मिल की व्यवस्था में अपने भाई की सहायता करने के लिए उन्हें अपना अध्ययन छोड़ देना पड़ा। उन्होंने अपने चाचा के मार्गदर्शन में अपने हिस्से में आयी रायपुर मिल में टाइमकीपर, स्टोरकीपर आदि से कार्य प्रारम्भ किया और बाद में मिल के संचालन विषयक सभी कार्यों में योग्यता अजित करके अपनी तेजस्वी बुद्धि एवं कार्य कुशलता से उसे भारत की प्रसिद्ध एवं अग्रगण्य कपड़ा मिलों की श्रेणी में लाकर रख दिया। उसके बाद अशोक-मिल, अरुण-मिल, अरविंद-मिल, नूतन-मिल, अनिल-स्टार्च और अतुल संकुल आदि अनेक उद्योग-गृहों की सन् १९२१ से १९५० के बीच स्थापना करके लालभाई-ग्रुप को देश के अग्रगण्य उद्योगगृहों में प्रतिष्ठित कर दिया।
व्यावसायिक कार्यों के साथ-साथ कस्तूरभाई ने अपने पूज्य पिताजी की तरह लोक कल्याण के कार्यों में भी बड़े उत्साह से भाग लिया । सन् १९२१ में अहमदाबाद नगरपालिका के अध्यक्ष के निर्देश से उन्होंने और उनके अन्य भाइयों ने नगरपालिका की प्राथमिक शाला को ५० हजार का दान दिया था। सन् १९२१ के दिसम्बर माह में जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन अहमदाबाद में हुआ तब पंडित मोती लाल नेहरू के साथ उनका मैत्री सम्बन्ध हुआ। १९२२ में सरदार वल्लभभाई पटेल की सलाह से वे भारतीय संसद में मिल मालिकों के प्रतिनिधि के रूप में चुने गये । १९२३ में जब स्वराज पक्ष की स्थापना हुई तब अहमदाबाद तथा बम्बई के मिलमालिकों की ओर से उसे पाँच लाख का दान दिलवाया था। संसद में वस्त्र पर चुंगी समाप्त करने का प्रस्ताव कस्तूरभाई ने रखा था और शासन की अनेक विघ्न-बाधाओं के बावजूद भी उसे स्वीकार करवा लिया। स्वराज पक्ष के सदस्य नहीं होने पर भी कस्तूरभाई को पं० मोतीलाल जी ने स्वराज-श्रेष्ठ की उपाधि प्रदान की थी। लम्बे समय से चल रहे मिल-मजदूरों के बोनस एवं वेतन सम्बन्धी वाद-विवाद को निपटाने के लिए सन् १९३६ में गाँधी जी और कस्तूरभाई का एक आयोग बनाया गया। प्रारम्भ में दोनों के बीच मतभेद उत्पन्न हो गया परन्तु अन्त में दोनों किसी एक विकल्प पर सहमत हो गये । इन सब कार्यों में कस्तूरभाई की निर्भीकता, साहस और योग्यता के दर्शन होते हैं।
सन् १९२९ में उन्होंने जिनेवा की मजदूर परिषद में मजदूरों के प्रतिनिधि के रूप में और सन् १९३४ में उद्योगपतियों के प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया था। स्वतन्त्रता की प्राप्ति के बाद भी इसी प्रकार के अनेक प्रतिनिधि मण्डलों में उन्होंने भाग लिया था। इन सब प्रसंगों पर देश के हित को ही सर्वोपरि मानकर वे विदेशियों के साथ की चर्चाओं में विलक्षण बुद्धि और कुशलता का परिचय देते थे।
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