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( १७ )
सं० कृ० अ० ( अकृत्वा) आदि २ | जहां तक हो सका वहां तक ऐसे रूपों को धातु के साथ ही रक्खा है; परन्तु जिनके धातु खोज करने पर भी न मिल सके और जो धातु मिले इनके साथ वर्ण-सादृश्य न होने के कारण इन्हें पृथक् ही रखना पड़ा ।
( ११ ) धातु + के मुख्यतया तीन गया माने गये हैं जो धातु प्रथम गया के हैं उनके भागे I. ऐसा अक दिया है। जो द्वितीय गण के हैं उनके आगे II. ऐसा श्रङ्क दिया है और जो उभयगण के हैं उनके आगे I II ऐसे अह्न दिये हैं। थोड़े धातुओं की क्रियाएं अलग भी दी गई हैं, जैसे:- करिंसु, अलाहि भादि २ । इन क्रियाओं को पृथक् रखने का कारण यह है कि, ये क्रियाएँ लुङ् लकार की हैं और इनके पूर्व 'अ' है, अनुक्रम में फरक न लाने के हेतु इनको क्षण रखकर इनके आगे लिख दिया है कि देखो 'कृ' धातु और 'लभ' भातु । क्रिया को देखने के पूर्व उसके धातु को देखना चाहिये जिससे उस धातु के साथ ही सव क्रियाएँ मिल सकती हैं। अर्ध-मागवी में उपसर्ग धातु के साथ ही रक्खा है और संस्कृत में उपसर्ग और धातु के बीच यह + चिन्ह दिया है । कहीं कहीं नाम धातु भी आये हैं और उनके मागे ना० भा० ऐसा संक्षेप किया गया है ।
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(१२) एकार्थ वाचक शब्दों का अन्तिम अक्षर यदि ' अ ' अथवा 'य श्राया है तो दोनों (अ, य ) उस शब्द के साथ दिखला दिये हैं, जैसे:- श्रवगश्र-य * । इसी प्रकार भ्रातु के रूपों में भी अन्तिम अक्षर 'इ' और 'ति' उस रूप के साथ ही बतलाए हैं । कहीं पर कहीं पर 'अवगय ऐसे दोनों रूप देखने में आते हैं परन्तु इस शब्द का प्रयोग जहाँ जहाँ स्वतन्त्र रूप से किया है और जब वह विभक्त्यन्त हो जाता है तब
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श्रवगा
6 अवगए
ऐसा ही होता है ।
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(१३) कई स्थानों में शब्दान्तर्गत 'क' और 'ग' के दो शब्द न दिखलाकर उन दोनों क और ग का एक ही शब्द में वैकल्पिक समावेश कर दिया है, जैसे- अव्वोक-ग-ड (अव्याकृत) ।
(१४) तद्, युष्मद्, अस्मद् आदि त्यदादि शब्दों के रूप जहां तक सूत्रों में मिल सके, सभी प्रथमा विभक्ति से सातवीं विभक्ति तक अनुक्रम से दिये हैं । अर्धमागधी में चतुर्थी विभक्ति का व्यवहार नहीं होता वास्ते उसके रूप नहीं दिये । चतुर्थी विभक्ति को जानने के प्रत्यय
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+ जिस धातु के उपान्त्यवर्ण अर्थात् प्रत्यय ( तिप् तस् कि आदि ) के पूर्व के अक्षर में . ए ' की मात्रा लग जाती है, वे धातु द्वितीय गण के होते हैं । जिस धातु के उपाय अक्षर में “ए” की मात्रा नहीं लगती वे प्रथमगण के होते हैं । कोई धातु ऐसे भी हैं कि जिनको यह मात्रा विकल्प से लगती है । ऐसे धातु उभयगणी माने गये हैं, जैसे:-; अरिहर प्रथमगणी, भवमय्येति द्वितीयगणी; अवकमह, भवकमेइ उभयगणी
* इस शब्द में 'प्र' के पीछे 'य' है, कहीं पर 'य' के पीछे 'अ' मिलेगा इस प्रकार का विध्यास प्रमाणाधिक्य ( अर्थात् सूत्रों में अकारान्त शब्दों का बाहुल्य होने से 'अ' प्रथम और यकारान्त शब्दों की प्रचुरता से 'य' प्रथम रक्खा है ) रेफरन्स और कोटेशन्स के लिहाज से किया है ।
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