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हिन्दी गुजराती धातुकोश
हिन्दी व्याकरणकार जिसे 'धातु' कहते हैं उसे यहाँ ‘क्रियावाचक धातु' कहा गया है. संस्कृत परंपरा के अनुसार किसी भी शब्द के मूल रूप को 'धातु' की संज्ञा दी है. डा. ऊर्मि देसाई लिखती हैं कि शब्द की प्रमुख इकाई के लघुतम अंश को धातु कहा जा सकता है. इस परिभाषा को इन्होंने इस प्रकार स्पष्ट किया है :
“धातु ए शब्दना मध्यवर्ती अंश माटेनी संज्ञा छे. एटले के बधा ज शब्दोना मध्यवती अंश धातुना बनेला होय छे. अने आ धातुओ ज घणुखरु अर्थना मुख्य वाहक होय छे.
धातुओ एटले संस्कृतमा जेने आपणे क्रियावाचक अंग कहीए छीए ते नहीं. परंतु अर्थनी दृष्टिए गुजराती भाषानी कक्षाए जेनु आगळ पृथक्करण न करी शकीए अने जेनो अथे अधातुओनी तुलनाए कंइक वधु 'स्थूल' होय ते. आम धातुओ ते भाषानो पायानो आधार छे. उदा. “हाथ, पग, टेबल, बोल, शाल, जीव, गाय, धन, फूल" वगेरे.
एक शब्दमां एक ज धातु आवे एवु कंई नथी. एक करतां वधु धातु पण आवी शके." 81
यहां कहा गया कि (1) सभी शब्दों के मध्यवर्ती अंश धातओं से बने होते हैं, (2) ये धातुएँ प्रमुख अर्थवाहक होती हैं, (3) धातु पृथक्करण के बाद की स्थिति है, धातु तक पहुँचने के बाद पृथक्करण संभव नहीं, (4) कुछ शब्दों में -समासादि में एक से अधिक धातुएँ हो सकती हैं. . लेखिका ने इस प्रतिपादन के लिए इ. ए. नायूडा के ग्रंथ 'मार्कोलोजी- द दीस्क्रिप्टिव एनालिसिस आफ वर्ड्स' का आधार लिया है. लेखिका की स्थापनाएँ नई हैं फिर भी गुजराती व्याकरणशास्त्र की परंपरा में आगंतुक नहीं लगती. रूपरचना को (1) धातु और (2) अधातु में बांटकर, धातु को शब्द का मध्यवर्ती अंश मानने में औचित्य है. हिन्दी व्याकरणकारों ने क्रियावाचक धातु को ही धातु कहा है जब कि गुजराती व्याकरण के अनुसार धातुएँ दो प्रकार की हैं : (1) संज्ञावाचक धातुएँ और (2) क्रियावाचक धातुएँ.
अभी गत वर्ष (1977 में ) प्रकाशित डा. योगेन्द्र व्यास के व्याकरण में 'नामपद में प्रविष्ट होते रूप', 'क्रियापद में प्रविष्ट होते अन्य रूप' तथा 'द्वैती येक रचनाएँ' जैसे प्रकरण भी इसी वर्गीकरण का समर्थन करते हैं. डा. व्यास के अनुसार 'क्रियापद जैसी रचना में प्रविष्ट होते रूपों में जो प्रमुख या केन्द्रित रूप होते हैं उन्हें धातु अथवा क्रियापद के मूल रूप (- वर्ब बेस ) कहते हैं.'
'क्रियापद के मूल रूप' को 'क्रियावाचक धातु' कहना अधिक युक्तिसंगत है. आख्यातिक रूपों के पदसाधक प्रत्ययों को अलग करने पर जो सरल मूल अंग अर्थात् प्रकृति शेष रहती है इसे डा. भायाणी ने क्रियावाचक धातु बताकर प्रस्तुत प्रबंध में हिन्दी-गुजराती 'धातुओं' का नहीं परन्तु 'क्रियावाचक धातुओं' का तुलनात्मक अध्ययन करने का सुझाव दिया था. ५. धातु-संख्या
संस्कृत 'धातुपाठ' में कुल 1880 धातुओं की गणना है. यह उल्लेख श्री बाबूराम सक्सेना ने किया है. श्री भोलानाथ तिवारी के हेसाब से संस्कृत धातुओं की संख्या 800 है. वे लिखते हैं :
'हिटनी की गणना के अनुसार इनमें 800 से कुछ ही अधिक का साहित्य (विशेषत: वैदिक तथा प्राचीन लौकिक ) में प्रयोग मिलता है. इन 800 के तीन वर्ग हैं. प्रथम वर्ग लाभग
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