________________
२०४
हिन्दी - गुजराती धातुके श
हुए पूछा है कि क्या 'तिहाई तथा चौथाई तत्सम' जैसे शब्द प्रयोग भी नहीं करने पड़ेंगे ? वास्तव में 'अर्धतत्सम ' शब्दप्रयोग गाणितिक नापतौल के लिए नहीं है । आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं ने अपनी शब्दसमृद्धि बढ़ाने के लिए बिना रूपविकार के जिन संस्कृत धातुओं का व्यवहार शुरू किया उन्हें तत्सम तथा उत्तरकालीन रूपविकार के साथ जिनका प्रयुक्त किया उन्हें अर्धतत्सम कह के हमें भाषापरिवर्तन की एक विलक्षणता को समझना है । परिवर्तन के सहज क्रम में तो सभी संस्कृत धातुएँ तद्भव रूप में ही हिन्दी - गुजराती तक पहुँचनी चाहिए थीं। ग्रियर्सन ने कहा है कि क्रियाएँ तत्सम नहीं हो सकतीं । यदि उनमें से कुछ की धातु किसी प्रकार तत्सम हो भी तो काल - रचना, वाच्य परिवर्तन आदि के कारण वे तद्भव रूप धारण कर लेती हैं 4 । विज्ञान तो यहाँ तक कहता है कि कोई भी शब्द दुबारा उच्चरित होता है तब अपने पूर्वरूप से कुछ भिन्न तो होता ही है । परन्तु सादृश्य आदि के कारण हम उसे उसके पूर्वरूप में ही पहचानते हैं । यह एक हकीकत है कि आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं ने प्राकृत - अभ्रंश की प्रक्रिया से न गुजरने वाली कई धातुएँ संस्कृत से ग्रहण की हैं। यह एक सांस्कृतिक घटना है। इसे कई प्रभावों के संदर्भ में समझा जा सकता है । यहाँ उल्लेखनीय तथ्य यह है कि अन्य तत्सम-अर्धतत्सम शब्दरूपों की अपेक्षा तत्सम और अर्धतत्सम धातुओं की संख्या कम है। हाँ, गुजराती की अपेक्षा हिन्दी में यह प्रवृत्ति कुछ अधिक रही, बोलियों में भी । डा. शुकदेव सिंह ने उदाहरण देकर प्रतिपादित किया है कि भोजपुरी में कुछ ऐसी भी अर्धतत्सम धातुओं का प्रचलन है, जो संस्कृत की मूल धातुओं से प्रत्यक्ष रूप से सम्बद्ध हैं । यह कथन भी डा. सिंह का है कि खड़ीबोली में अर्द्ध-तत्सम धातुओं का अनुपात अधिक है, इसलिए कि खड़ीबोली साहित्यिक भाषा है । बोल्चाल की गुजराती और साहित्यिक गुजराती में उतना अंतर नहीं हैं । फिर भी साहित्यिक एवं शास्त्रीय गद्यलेखन के देढ़ शती के इतिहास ने तत्सम - अर्धतत्सम धातुओं का लगभग इसी अनुपात में प्रयोग किया है। सार्थ गुजराती कोश में मगनभाई देसाई ने जिस प्रकार कुछ अंग्रेजी शब्दों से ''आक्सव', 'क्लेव' आदि गुजराती धातुरूप बनाए हैं इसी प्रकार तत्त्वज्ञान, मनोविज्ञान तथा साहित्य-समीक्षा जैसे विषयों के कुछ विद्वानों ने पारिभाषिक पर्याय खोजते खोजते धातु, क्रियार्थक संज्ञा तथा संयुक्त क्रियाओं के संस्कृताश्रित प्रयोग किए हैं । कुछ प्रयोगशील कवियों ने अश्व, वृक्ष आदि संज्ञाओं के क्रियारूप बनाए हैं । पिछले देढ़-दो दशक में व्याप्त दोनों भाषाओं की इस प्रवृत्ति को आत्यंतिक मानकर ऐका धातुओं का परिशिष्ट में भी समावेश नहीं किया है। अलवत्ता, भविष्य की अनिश्चितता इस नकार को पलट भी संकती है।
1.9 हिन्दी की 2981 धातुओं के पर्याय के रूप में 1126 गुजराती धातुएँ प्राप्त होती हैं । इनमें से 555 धातुओं में पूर्णतया रूपसाम्य है। 571 धातुओं में आंशिक रूपसाम्य है । पूर्णतया रूपसाम्य रखनेवाली • धातुओं में से 468 धातुओं में अर्थसाम्य है, आंशिक रूपसाम्य-युक्त धातुओं में से अर्थ - साम्य रखनेवाली धातुएँ 502 हैं, जब कि थोडा-बहुत अर्थवैषम्य जताती धातुएँ 87 + 69 = 156 हैं। जो धातुएँ समानस्रोतीय नहीं हैं उनके ध्वनिसाम्य का महत्त्व नहीं दिया । केवल देशज धातुएँ ही इसमें अपवाद - रूप हैं क्योंकि इनके स्रोत संदिग्ध हैं । अतः अर्थ तथा प्रयोग की सहायता से इनका चयन किया था ।
2. परिवर्तन, वृद्धि तथा क्षति :
2.1 भाषाविज्ञान के क्षेत्रविस्तार के बारे में विद्वानों के मतभेदों का उल्लेख करते हुए पाल किपास्की ने . हर्मन पाल की इस मान्यता का जिक्र किया है: भाषाविज्ञान से सम्बन्धित सारी स्पष्टताएँ अनिवार्य रूप से
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org