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पूर्वकार्य का अध्ययन ऐसे कुछ निरुत्तर प्रश्नों के साथ भी संस्कृत वैयाकरणों ने जो 'शब्द-चिन्तन' किया है उसकी सराहना जितनी की जाय, कम है. धातुपाठ पर सतत शास्त्रार्थ करते हुए संपादन करने को संस्कृत में जो परंपरा बनी रही वह विरल है.
'ए डिक्शनरी आफ संस्कृत ग्रामर' के लेखकों ने धनंजय, वरदराज, पाणिनि, शाकटायन, नागेश, धर्मकीर्ति, काशीनाथ, चोक्कनाथ आदि वैयाकरणों द्वारा रचित धातुपाठ के चौदह ग्रंथों के नाम दिए हैं. इससे पता चलता है कि संस्कृत व्याकरणशास्त्र ने इस विषय के अध्ययन का महत्त्व सतत बनाए रखा है. ईसा पर्व 8वीं सदी से लेकर ईसा की ७वीं सदी त होते इन संस्कृत ग्रंथों में धातुचर्चा होती रही और शास्त्रीय पद्धति से धातुओं के संचय किये गए. इस संदर्भ में संस्कृत-प्राकृत के कुछ वैयाकरणों का विशेष उल्लेख किया जा सकता है : कच्चान, स्थ वेर संघर देखत, भिक्षु अग्गवंस, मैत्रेयरक्षित, हेमचन्द्र, त्रिविक्रम, जुमरनन्दिन, नारायण, चोक्कनाथ, मोग्गल्लायन महाथेर आ.दे. इन विद्वानों ने व्याकरण के साथ धातुपाठ देने की परंपरा अक्षुण्ण रखी. इस शताब्दी में पाश्चात्य भाषाविज्ञान के संदर्भ में संस्कृत व्याकरणशास्त्र का अध्ययन शुरू हुआ है और भारतीय तथा पाश्चात्य विद्वानों ने संस्कृत वैयाकरणों की वैज्ञानिक उपल.ब्धयों को बड़े गौरव के साथ हमारे सामने प्रस्तुत किया है. २ पाश्चात्य धातु-चर्चा :
एम० बी० एमेनो ने लिखा है कि भारतीय व्यकरणशास्त्र के गहन अध्ययन का प्रभाव ब्लूम फेल्ड की विश्लेषण-पद्धतियों पर पड़ा है. स्वयं ब्लूम फेल्ड ने भी कहा है कि 'पाणिनि का व्याकरण' उनकी उन पुस्तकों में था जिन्हें वे विश्राम के क्षणों में सदैव पढ़ा करते थे.16
पाश्चात्य परंपरा में शब्द शब्द-रूप में ही वाक्य में प्रयुक्त होता है. ब्लूम फल्ड 'मिनिमन फ्री फार्म' - लघुतम मुक्त रूप को शब्द कहते हैं. संस्कृत व्याकरण के अनुसार वाक्य के घटक के रूप में प्रयुक्त होने से पहले ही शब्द का रूपान्तर पद के रूप में हो जाता है. पश्चिम में शब्दों के वर्गीकरण की परंपरा ग्रीक-लेटेन काल से है परन्तु इसकी वैज्ञानिकता से विद्वान संतुष्ट नहीं हैं. एम. बी. एमेनो लिखते हैं :
"लेटेन के चार प्रकार के क्रिया-रूपों (कन्जुगेशन्स) के विवेचन को लिया जा सकता है जिसमें क्रियाओं के धातुरूपों (रूटूस), मूल प्रत्ययों (स्टेम साफे क्सस) तथा विकारी प्रत्ययों ( इन्फ्लेक्शनल साफे क्सस) के अन्वेषण का कोई विशेष प्रयास नहीं किया गया है तथा विविध क्रियारूपों में प्राप्त सादृश्य की ओर भी कम ही ध्यान दिया गया है. " ।
पाश्चात्य वैयाकरणों द्वारा किया गया अन्वेषण एवं विश्लेषण भले ही प्रभावक न हो परन्तु वे ईसा पूर्व पाँचवीं शताब्दी से लेकर प्रस्तुत विषय की चर्चा करते रहे हैं. प्लेटो (ईसा पूर्व 429 से 347 ) प्रथम विद्वान हैं जिन्होने संज्ञा तदा क्रिया के बीच स्पष्ट रूप से भेद किया तथा वाक्य में उनके कार्य को भी समझाया :
As defined by Plato. nouns' were terms that could function in sentences as the subjects of a predication and 'verbs' were terms which could express the action or quality predicated 15
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