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________________ ह्रास होता जा रहा है । प्राध्यात्मिकता के प्रभाव में वे परम्पराप्रिय और रुढ़िवादी संस्थायें मात्र बनकर रह गई हैं, समन्वय और सहकार के स्थान पर वे सामाजिक उच्छेद का साधन बन गई हैं, प्रगतिशील तत्वों की श्रवहेलना से उनकी नैतिक शक्ति कुठित हो गई है तथा कर्मकांडी ग्रंधविश्वासों का पिटारा बन कर रह गई हैं, एवं भावी पीढ़ियों को मार्गदर्शन करने की उनकी सामर्थ्य क्षीण हो गई है । प्राध्यात्मिकता और धार्मिकता का पुनर्गठन आज समय की सबसे बड़ी मांग है । हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि धार्मिकता को प्राणप्रतिष्ठा आध्यात्मिकता से हो होती है । धार्मिकता विश्व कल्याण तथा व्यक्तित्व के विकास का नैतिकता मूक तंत्र है जबकि आध्यात्मिकता उसका मंत्र, धार्मिकता वर्ग विशेष की ऐतिहासिक परंपरा है जबकि आध्यात्मिकता वर्तमान और भविष्य को अनुप्राणित करने वाली प्रगतिशीलता, आध्यात्मिकता साध्य है जबकि धार्मिकता साधन । प्राध्यात्मिकता मनुष्य के वैयक्तिक उत्कर्ष का परीक्षण करती है जबकि धार्मिकता उन परीक्षणों को सामाजिक चेतना के विकास में प्रयुक्त करती हैं । एवं आध्यात्मिकता जहां धर्म का मापदण्ड है धर्म आध्यात्मिकता को उर्वरा भूमि । इस कथन में दो मत नहीं हो सकते कि वैयक्तिक, सामाजिक, नैतिक और मानवीय उत्कर्ष के लिये तथा जीवन में सुख और शांति को सृष्टि करने के लिये प्राज आध्यात्मिक तत्वों के प्रसार तथा परिष्कार की नितान्त आवश्यकता है । किन्तु, यह तभी संभव है जबकि मनुष्यों के व्यक्तिगत जीवन, उनकी सामाजिक और सांस्कृतिक संस्थानों तथा धार्मिक दृष्टिकोणों में उपयुक्त परिवर्तन हो । इसके लिये लोगों के दिल और दिमागों में क्रान्तिकारी परिवर्तन करने की आवश्यकता है । इस तरह की क्रांति में किसी प्रकार की जोर जबरदस्ती या हसात्मक साधनों को अपनाने की जरूरत नहीं है । यह परिवर्तन व्यवस्थित ढंग से तथा शांतिमय उपायों से किया जा सकता है । यदि मनुष्यों को प्रेरणा शक्ति, विचारधारा, अनुभूति और विवेक में उपयुक्त परिवर्तन किया जा सका तो सफलता मिलने में कोई संशय नहीं है । यह ध्यान रखना चाहिये कि किसी बाहरी दबाव से मनोवांछित प्रभाव उत्पन्न नहीं किया जा सकता, फिर चाहे भले ही साधु-संत महात्मानों के जरिये हो जबरदस्ती क्यों न करवाई जाय । हिंसात्मक क्रान्तियां और युद्ध विनाशकारी तथा विध्वंसक प्रवृत्तियों के प्ररिचायक है । घृणा, हिंसा और रक्तपात बदले में घृणा, हिंसा और रक्तपात को ही उत्पन्न करते हैं । सनातन काल से यही नियम चला आया है और अनंतकाल तक यही चलता रहेगा । युद्ध और क्लेश से संत्रस्त इस विश्व में यदि बीच-बीच में शांति और सर्जन नशील तथा रचनात्मक उपायों का सिलसिला दिखलाई देता है तो यह मानव के शांतिप्रयत्नों, अध्यात्मवादी प्रवृत्तियों और मानवतावादी निष्ठा का ही वरदान है । जैन जाति दया के लिए खास प्रसिद्ध है, और दया के लिये हजारों रुपया खर्च करती हैं । जैनी पहले क्षत्री थे, यह उनके चेहरे व नाम से भी जाना जाता है। जैनी अधिक शान्ति प्रिय हैं । जैन हितेच्छु पुस्तक १६ अङ्क ११ में से । Jain Education International - श्री नाटोरोय फिल्ड सा० कलेक्टर For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014041
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1964
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size15 MB
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