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________________ की है । जो राजा अपने जीवन को केवल भोग विलास का ही साधन समझते हैं वे आत्म कर्त्तव्य ज्ञान से शून्य हैं। अपने ऊपर संपूर्ण राज्य के जीवन का भार लेकर भी यदि भोग विलास को ही अपना लक्ष्य बनालें तो उनसे अधिक आत्मवञ्चक तथा प्रमत कौन होगा ? आचार्य सोमदेव ने राजा और राज्य की त्यागमयता के कारण उसे पूज्य समझकर अपने 'नीतिवाक्यामृत' के प्रारम्भ में राज्य को ही नमस्कार किया है । उनका पहिला सूत्र है - प्रथ धर्मार्थ कामफलाय राज्याय नमः । शुक्राचार्य के नीतिशास्त्र में भी सन्धि विगृह प्रदि शाखा, साप, हान आदि पुष्प तथा धर्म अर्थ काम रूप फलयुक्त राज्यवृक्ष को नमस्कार किया गया है । राजा कौन हो सकता है उसके उत्तर में आचार्य सोमदेव कहते हैं, धर्मात्मा कुल अभिजन और प्राचार से शुद्ध प्रतापी, नैतिक, न्यायी निग्रह धनुग्रह में तटस्थ आत्म सम्मान आत्मगौरव से व्याप्त कोश एवं बल सम्पन्न व्यक्ति राजा होता है ।" सोमदेव सूरि प्राचार्य सोमदेव सूरि ने चालुक्य वंशीय राजा प्ररिकेसरी के प्रथम पुत्र श्री वद्दिगराज की गंगाधारा नगरी में चैत्र सुदी १३ शक संवत् ८८१ को यशस्तिलक चम्पू को पूर्ण किया, इनका एक और भी सुविख्यात ग्रन्थ 'नीतिवाक्यामृत' भी है जो राजशास्त्र की प्रमूल्य निधि है । इन दोनों ग्रन्थों में राजाओंों के राजनैतिक जीवन को व्यस्थित और अधिक से अधिक राजव्यवस्था को सफल बनाने के लिये मर्यादा निर्देशन दिया है । राजव्यवस्था को सुदृढ़ बनाने के लिये माचार्य ने राजा को देशना दी है कि अपने राज्य का समस्त भार मन्त्रियों आदि पर छोड़ कर बैठने से ही राजा राजव्यवस्था में असफल होते हैं । प्राचार्य कहते हैं कि राजाश्रों को प्रत्येक राजकीय कार्य स्वयं अवलोकन करना चाहिये। क्योकि जो राजा अपना कार्य स्वयं नहीं देखता है उसे निकटवर्ती लोग उल्टा सीधा सुझा देते हैं । शत्रु भी उसे अच्छी तरह धोखा दे सकता है । "जो राजा मन्त्रियों को राज्य का भार सौपकर स्वेच्छाविहार करते हैं वे मूर्ख, बिल्लियों के उपर दूध की रक्षा Jain Education International ३२ का भार सौंपकर ग्रानन्द से सोते हैं। कदाचित् जल में मछलियों का और ग्राकाश में पक्षियों का मार्ग जाना जासकता है किन्तु हाथ के प्रॉबले को लुप्त करने वाले मन्त्रियों की प्रवृत्ति नहीं जानी जासकती। जिस प्रकार वैध लोग धनाढ्य पुरुषों के रोग बढ़ाने के लिये वैद्य सदैव तत्पर रहते हैं उसी प्रकार मन्त्री भी राजा की आपत्तियां बढ़ाने में सदा प्रयत्नशील रहते हैं। आचार्य ने जहाँ मन्त्रियों के प्रति राजा को जागरुक रहने का उपदेश दिया है वहां मन्त्रियों को उपयोगिता का भी सुन्दर प्रतिपादन किया है । मन्त्रियों के बिना केवल राजा के ही द्वारा राज्य का संचालन नहीं हो सकता । अतः राजा को राज्य व्यवस्था के लिये अनेक मन्त्री गण रखने चाहिये | 1 आन्तरिक शान्ति व्यवस्था के लिये राजानों को उदार बनना आवश्यक है। अपनी सम्पत्ति का उचित भाग दूसरों के लिये भी देना चाहिये जो राजा संचय शीलता के कारण प्रश्रितजनों में अपनी सम्पदा नहीं बांटते उनका अन्तरंग सेवक भ्रष्ट हो जाता है । इस प्रकार प्रजा में शनैः शनैः प्रनीति बढ़ने लगती है, और अन्ततोगत्या अराजकता फैलजाती है। यहाँ दान उपाय के समर्थन के आगे भेदनीति का भी सुन्दर प्रतिपादन किया है। 'जो राजा शत्रुओं में भेद डाले बिना ही पराक्रम दिलाता है वह ऊँचे बांसों के समूह में से किसी एक बांस को सींचने वाले वली के समान होता है।' प्राचार्य सोमदेव सूरि ने अनेकों प्रकार के प्रमाण और उक्तियों द्वारा राजा की स्थिति को सुदृढ़ करने की बात कहीं हैं। यह प्रावश्यक नहीं कि शत्रुओं को अपने वश करने के लिये उनके देश पर प्राक्रमण ही करे जिस प्रकार कुम्भकार अपने घर बैठकर चक्र चलाता हुप्रा अनेक प्रकार के बर्तन बना लेता है ठीक उसी प्रकार राजा भी अपने घर बैठकर चक्र नीति एवं सैन्य ) चलाये और उसके द्वारा दिग दिगन्त के राजा-भाजनों को सिद्ध ( वश में करे जिस प्रकार किसान अपने ) 1 खेत के बीच मञ्च पर बैठकर ही खेत को रक्षा करता For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014041
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1964
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size15 MB
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