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जनपद
६. शनुद्रि नदी के पूर्व में-भरत, भित्सु पुरू, जिस समय पार्य भारत में प्रविष्ट हये और उन्होंने पारावत और अंजय यहां के आदिम वासियों को परास्त कर इस देश में
७. यमुना के क्षेत्र में-उशीनर, वश, साल्व शक्ति का विस्तार किया, वे राजनैतिक दृष्टि से संगठित और किती। हुये उस समय उस संगठन को 'जन' कहते थे। इन
इन जनों के अतिरिक्त अन्य बहत से जनों का जनों का संगठन परिवार के नमूने पर होता था। एक
उल्लेख वैदिक साहित्य में पाया है । वैदिक युग के जन के सभी व्यक्ति 'सजात' अथवा एक ही वंश के
पार्यों की इन विविध शाखाओं व जनों का निवास प्रायः समझे जाते थे। आर्यों के अत्यन्त प्राचीन जन प्रायः
उत्तर पश्चिमी भारत व पंजाब के क्षेत्र मे ही था। 'अनबस्थित' दशा में होते थे, क्योंकि वे किसी प्रदेश पर प्रारम्भ में स्थायी रूप से नहीं बसे थे । पर इन
वैदिक युग की शासन संस्थाओं का अनुशीलन अनव स्थित जनों में भी संगठन का प्रभाव न था । करते हुये हमें यह ध्यान में रखना चाहिये कि 'जन' के प्रत्येक जन के अनेक विभाग होते, जिन्हें ग्राम' कहते
रूप में जो राजनैतिक संगठन था उसका स्वरूप क्या थे । ग्राम का अर्थ समुदाय है। बाद में जब मनुष्यों का था। इस प्राचीन युग के भारतीय, राज्यजनों पर ही कोई समूह या समुदाय ( ग्राम ) किसी स्थान पर स्थाई आश्रित थे, ऐसे जनों पर जो कि ग्रामों व गोत्रों (कूलों) रूप से बस गया तो वह स्थान भी ग्राम कहलाने लगा। में विभक्त थे। वर्तमान समय के राज्यों से उनका मा इसी प्रकार जब कोई जन जो अनेक ग्रामों में विजयी भिन्न था। होता था। किसी भी प्रदेश पर स्थाई रूप से बस जाता राजा तो वह प्रदेश 'जनपद' कहलाने लगता, और स्वाभाविक जनपद का मुखिया राजा होता था। सामान्यतया रूप से उसमें अनेक ग्रामों की सभा होती। सारे जनपद राजा का पुत्र ही पिता की मृत्यु के बाद राजा के पद के शासक को राजा कहते थे ।
को प्राप्त करता था, पर यह प्रावश्यक था कि उसको वैदिक यग के प्रार्य राजनैतिक दृष्टि से जिन 'जनों' जनमत 'विशः' या प्रजा स्वीकार करे । यदि राजा का में संगठित थे वेदों के अनुशीलन से उनके सम्बन्ध में पुत्र प्रजा की सम्मति में राजा के पद के लिये प्रयोग भी परिचय मिलता है। Vedic Index में इन जनों हो तो प्रजा उसे राजा के रूप में स्वीकार नहीं करती का भौगोलिक दृष्टि से विभाजन निम्न प्रकार से किया थी तब कुलीन घराने के किसी अन्य व्यक्ति को कर गया है
स्थान दिया जाता था। १. उत्तर-पश्चिम के क्षेत्र में-कम्बोज, गान्धारी, जनता जिस राजा का वरण करती थी उससे वह अलिन, पक्थ, मलान और विद्यारिणन।
कतिपय कर्तव्यों के पालन की भी प्राशा रखती थी।
इन कर्तव्यों में सर्व प्रधान कर्तव्य जनता को धन २. सिन्धु नदी के पश्चिम में-अजिकीय, शिक,
वैभव पैदा करवाना और धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान केकय और वृचीवन्त ।
करना था। धर्म के प्रति सहिष्णुता ही पर्याप्त न थी ३. सिन्धु और वितस्ता नदियों के मध्यवर्ती क्षेत्र
अपितु मुक्त हस्त अनुदान की भी जनता प्राशा में यदु।
करती थी। ४. वितस्ता नदी के पूर्ववर्ती पार्वत्य क्षेत्र में
इस प्रकार स्पष्ट है कि राजा सृष्टि का सेवक महावृक्ष, उत्तर कुरू और उत्तर भद्र।
योग्य पुरुष था। उसका जीवन निरन्तर परिपलन के ५. असिक्नी और पुरुष्णी नदियों के मध्य में लिये ही होता था। जैनचार्यों ने साम्राज्य पद को सात वाल्हीक, द्रु द्य , तुर्वंशु और अनु ।
परम स्थानों में गिनकर राजा के महात्म्य की घोषणा
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