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________________ कन्नड़-भाषा पाठ सौ वर्ष सम्बन्धी जैनों के प्रभ्युदय-वासित-निमित्त दक्षिण भारत में प्रचलित द्राविड़ भाषाएं संस्कृत, जो वाङ्मय है, उसका अवलोकन करना समुचित है। प्राकृत प्रादि प्रार्य भाषामों के परिवार से भिन्न हैं । तत्कालीन करीब २८० कवियों में ६० कवियों को इस भाषा वर्ग का व्याकरण आर्यभाषानों के व्याकरणों स्मरणीय एवं सफल कवि मान लेने पर इनमें ५० जैन से प्रायः समग्ररूप से भिन्न है। लिंग, बचन प्रत्यय कवियों के नाम ही हमारे सामने प्रा उपस्थित होते हैं । प्रादि का क्रम सर्वथा भिन्न है। शब्द भंडार को दृष्टि इन ५० कवियों में ४० कवियों को निस्सन्देह हम प्रमुख से भी ये भाषाएं इतनी समृद्ध हैं कि इन्हें संस्कृत प्रादि मान सकते हैं । लौकिक चरित्र, तीर्थकरों के पारमार्थिक पार्य-भाषामों से शब्द उधार लेने की बहधा अावश्यकता पुराण और दार्शनिक प्रादि अन्यान्य ग्रन्थ भी जैनों के नही रहती। इस कथन का तात्पर्य यह नहीं कि आर्य द्वारा ही जन्म पाकर कन्नड़ साहित्य पर अपना शाश्वत भाषामों का एक भी शब्द द्राविड़ भाषाओं में नहीं है। प्रभाव जमाए हुये है। साधारण पादान-प्रदान तो चलता ही है । काल के कन्नड़ के जैन साहित्यकारों में जो विशेष प्रसिद्धि लम्बे प्रवाह में द्राविड़ भाषानों ने आर्य भाषाओं से प्राप्त लेखक है। उनमें महाकवि पंप का नाम प्रादि अनेक शब्द लिए हैं तो साथ ही अनेक शब्द दिए है। कवि के रूप में लिया जाता है । पोन्न. रन्न और जन्न ये भाषा तत्व के धुरंधर विद्वान डा० काल्डीवेल के मतानु तीनों कवि वहां के 'रत्नत्रय' कहनाते है । कंति वहां सार नीर, पल्लि, मीन, वल्लि, मुकुल, कुतल, काक, ताल, मलय, कलि, कल्प, तल्प और खजु आदि शब्द की प्रादि कवियित्री कही जाती है। उसे 'अभिनव वागदेवी' की उपाधि प्राप्त थी। महाकवि नागचन्द्र को द्राविड़ भाषामों से ही संस्कृत में पाए है । कुछ पाश्चात्य भाषा-शास्त्रियों के मतानुसार तो संस्कृत में वर्ग अभिनव पंप कहा गया है। इस प्रकार के ख्यातनामा के अक्षर द्राविड़ भाषानों से ही लिए गए हैं। परःशत जैन कवियों और उनके ग्रन्थों ने कन्नड़ साहित्य में प्रमर स्थान प्राप्त किया है। उनमें पंप का आदिपुद्राविड़-भाषा-परिवार की मुख्य पांच भाषाएं राण (सन् ६४१ ) पोन्न का शांतिनाथ पुराण गिनी जाती हैं-कन्नड़, तमिल तेलगू, मलयालम और (सन् १५० लगभग), रन्न का अजितनाथ पुराण तुलु । इनमें से कन्नड़, तमिल और तेलगु में जैन (सन् ६६३ ), चावुडराय का त्रिषष्टिशलाका पूराण साहित्यकारों ने प्रमुख रूप से लिखा है। कन्नड़ को तो (सन् १७८), अभिनव पंप नागचन्द्र का मल्लिनाथ साहित्यिक रूप प्रदान करने का समग्र श्रेय जैन लेखकों । को ही है। प्राज भी इस भाषा का दो तिहाई साहित्य पुराण ( सन् ११०० ), बुधवमों का हरिवंश पराण जैन साहित्य माना जाता है। तेरहवीं शताब्दी तक तो ( सन् १२०० ), कुमुददु का रामायण ( सन् १२७५ ). इस भाषा के साहित्य पर जैनों का ही एकाधिपत्य रहा रत्नाकरवर्णी का भारत वैभव ( सन् १५५७), आदि अनेक ग्रन्थ रत्न प्रमुख रूप से गिनाए जा सकते हैं । है । उनमें नवमीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक का तीर्थकरों, चक्रवत्तियों और महान राजामों आदि के काल विशेष उत्कर्ष पूर्ण माना जाता है । कहा जाता है कि यदि कन्नड़ भाषा में से जैन साहित्य को बाद दे जीवन-चरित्र पर आधारित सभी महाकाव्य भाषा लालित्य दिया जाए तो पीछे उसका प्राचीन साहित्य कुछ भी न के उत्कृष्ट उदाहरण माने जाते हैं । उपर्युक्त नाम तो रह जाए । इस बात की पुष्टि कन्नड साहित्य के मर्मज्ञ केवल सूचनामात्र हैं. मूलतः ऐसे सहस्रों ग्रन्थ हैं । कन्नड विद्वान शेष वी० पारिशवाड़े के कथन से भी होती है। के इन जैन लेखकों में श्रमण और गृहस्थ दोनों ही रहे वे कहते है-लगभग ईस्वी छठी शताब्दी तक के सात है। इसीलिए उसके साहित्य में जहां काव्य, व्याकरण, १-करनाटक कवि चरिते, भाग ३ की प्रस्तावना देखें । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014041
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1964
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size15 MB
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