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शील की नवबाड़, सुदर्शन चरित्र, उदाईराजा, जंबूकुवर जमाली, महाबल, खंदक सन्यासी आदि उनमें प्रमुख चरित्र. कृष्णाबलभद्रचरित्र. नन्दन मणियार है। इनके अतिरिक्त अध्यात्म रस से प्लावित कर देने अर्जुनमाली, ढंढरणमनि जिनरिख जिनपाल आदि उनकी वाले उनके अाराधना. चौबीसी प्रादि ग्रन्थ भी बढ़त अमर कृतियां है। उन्होंने गद्य भी काफी लिखा है। प्रसिद्धि प्राप्त हैं। मघवागणी ने उनके जीवन-चरित्र बीसवीं शती के समर्थ जैन-साहित्यकार श्री जया
'जयसुजस' में उनके द्वारा रचित ग्रन्थों की सूची बतलाते चार्य हुए हैं। उन्होंने राजस्थानी में साढ़े तीन लाख
हए ७१ ग्रन्थों के नाम दिए है और अंत में कहा है कि पद्य-प्रमाण साहित्य लिखा है। उनकी लेखनी से गद्य
इनके अतिरिक्त सैकड़ों स्फुट ढालों तथा थोकड़ों के रूप और पद्य दोनों ही प्रकार का साहित्य प्रसूत हुआ है।
में भी उनका पुष्कल साहित्य विद्यमान है । जयाचार्य उनका साहित्य विविध विषयक है । उसमें प्रागमटीका,
जहां ग्रन्थ-निर्माण में कुशल थे, वहां संकलन और तत्वसमीक्षा, जीवन चरित्र, पाख्यान, अनुशासन,
सम्पादन में भी प्रवीण थे । भिक्ष-दृष्टान्त उनकी
संकलन-पद्धति और सिद्धान्तसार तथा गरग विशुद्धिकरण स्तवन आदि विषय प्रमुख रहे हैं। प्रागम टीकानों के
हाजरी आदि उनकी संपादन पद्धति के उत्कृष्ट उदाअवरुद्व क्रम को बीसवीं शती तक पहुंचा देने का श्रेय हा एक मात्र उन्हीं को है । उन्होंने जिन अनेक प्रागमों को
हरण कहे जा सकते हैं। पद्यबद्ध टीकाएं की हैं, उनमें भगवती सबसे बड़ा
तेरापंथ के वर्तमान प्राचार्य श्री तुलसी तथा उनका पागम है। उसकी पद्य टीका का नाम भगवती की शिष्य संघ संस्कृत, हिन्दी ग्रादि भाषाओं में साहित्य जोड़े है । जयाचार्य की अकेली इसी कृति का गंथमान रचना के साथ-साथ भी तत्परता के साथ राजस्थानी ६३७६० पद्य-प्रमाण है। इसमें राजस्थानी गीतों की भाषा के साहित्य-निर्माण में लगा हना है । प्रतिवर्ष विभिन्न लयों में ५०१ गीतकाएं है । जैनागमों के अनेकों ग्रन्थों का योजनाबद्ध निर्माण चालू है। प्राचार्य तत्वज्ञान को लोक-गीतों की धुनों में बांधने में सबसे श्री तुलसी की राजस्थानी कृतियो में कालूयशोविलास, बड़ा और सर्वोत्कृष्ट प्रयास जयाचार्य का ही रहा है। मारएक महिमा, डालिमचरित्र आदि जीवन-चरित्र तथा इसके अतिरिक्त पाचारांग प्रथम श्रतस्कंध, निशीथ यादि गजसुकुमाल, उदाई सुकुमालिका ग्रादि प्राख्यान ग्रन्थ और अन्य अनेक प्रागमों की भी उन्होंने पद्य-टीका (जोडी कालू उपदेश वाटिका प्रादि प्रौपदेशिक अन्य महत्वकी थीं। तत्त्वसमीक्षा विषयक भी उनने अनेक प्रसिद्ध
पूर्ण है। ग्रन्थ है, उनमें भ्रमविध्वंसन, कुमति विहंडन, संदेह
राजस्थानी भाषा में साहित्य रचना की मुख्यतः विषौषधि, जिनाज्ञामुख मण्डन, प्रश्नोत्तर सार्थशतक.
तीन शैलियां मानी जाती हैं । जैन शैली, चारण शैल प्रश्नोतर तत्वबोध, झीणीचर्चा ग्रादि प्रमुख हैं। इनमें
और डिंगल शैली । डिंगल शैली अपभ्रंश भाषा का ही
एक विकसित रूप है। चार शैली में मुख्यतः चारण कुछ गद्यात्मक है तो कुछ पद्यात्मक । भिक्षजस रसायण.
कवियों ने और कुछ जैन, ब्राह्मण आदि अन्य कवियों ने खेतसीचरित्र, ऋषिराय-चरित्र, शांतिविलास, हेमनबरसो,
भी लिखा है । जैन शैली का विकास मुख्यतः जैन सरूपनवरसो आदि के रूप में उन्होंने १५ जीविनयां
साहित्य कारों ने ही किया है । इसमें कुछ गुजराती का पद्यबद्ध रूप से लिखी थीं । इन जीवनियों ने तेरापंथ के
प्रभाव रहा है । यह शैली मुख्यत: जनभाषा के अधिक इतिहास को जीवित रखने में बहत बड़ा सहयोग
समीप रही है। यही कारण है कि अपने प्रारम्भकाल दिया है।
से आज तक की इस शैली की राजस्थानी-कृतियां बड़ी जयाचार्य ने अनेक प्राख्यान ग्रन्थ भी लिखे हैं। प्रासानी से टीका ग्रादि के बिना ही समझी जा सकती धनजी, महीपाल, दयमंती, पार्श्वचरित्र, मंगलकलश, है। चार-सौ वर्षों के प्रलंबकाल में भी इसमें बहुत मोह जीत, शीलमंजरी, ब्रह्मदत्त,भरतबाहुबलि, व्याघ्रक्षत्रिय स्वल्प अंतर पाया है।
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