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________________ कुशन काल और उसके कुछ पूर्व से ही बौद्ध चैत्यों, वट-वृक्ष की भांति ही मूल के नष्ट होने पर भी विदेशों गुहा मन्दिरों, स्तूपों और बौद्ध मूर्तियों का निर्माण में फैले शाखा-प्रशाखाओं में जीवित और हराभरा रहा, प्रारम्भ हो चुका था। कुशन काल शिल्प विद्या का पर जैन धर्म एक सबल वृक्ष की तरह भारत में सदा उत्कर्ष काल था। कुशन, मथुरा और अमरावती की ठोस और सुदृढ़ रहा तया भारतीय एकता और समाजशैलियों का प्रचलन हया । जैनों ने भी इसमें योगदान संगठन का परम्परागत कार्य करता रहा । किया। चैत्य मन्दिर और गुहामन्दिरों के निर्माण के जैन सम्प्रदाय को पांचवी से बारहवीं शताब्दी तक साथ जिन मूर्तियों और तीर्थकरों की मूर्तियों का निर्माण गंग कद ब, चालुक्य और राष्ट्रकूट राजवंशों का प्राश्रय भी प्रारम्भ हुआ। बक्सर और सिंहभूमि (बिहार) से प्राप्त रहा। अतः इस काल में जैन मुनियों, कवियों जैन तीर्थ करों की कायोत्सर्ग मूर्तियां मिली हैं। मथुरा और दार्शनिकों ने संस्कृत, प्राकृत अपभ्रश और तमिल की खुदाई से प्राप्त मूर्तियों से ज्ञात होता है कि ५वीं सदी आदि में एक विशाल वाङमय का निर्माण किया । सच से पूर्व की तीर्थकरों की मूर्तियां नग्न ही बनाई जाती थीं तो यह है कि छठी से बारहवीं शताब्दी तक का जो और दिगम्बर सम्प्रदाय अधिक शक्तिशाली था । हां, कुछ साहित्य हमें उपलब्ध होता है, उसमें जैन साहित्य आदिनाथ के केश, पार्श्व और सुपार्श्व के सर्प फरण, मात्रा, गुण और प्रभाव की दृष्टि से सर्वोत्तम है। मूर्तियों में अवश्य दिखलाये जाते थे, शेष में नहीं। इतिहासविद् चौधरी के अनुसार तीर्थंकरों की मूर्तियों के तमिल साहित्य की सर्वाधिक प्राचीन रचना साथ यक्ष-यक्षिणियों की मूर्तियां भी बनाई जाती थीं। 'शिलप्पदिकारम्' जैन कवि इलंगो की देन मानी जाती कछ मतियों से ऐसा आभास होता है कि जिन पूजन के है । एक और तमिल में पीथी से दसवीं शताब्दी तक कार्य में गणिकायें और नर्तकियां भी भाग लेती थी। के भक्तिकाल में जैन मुनियों की बहमूल्य देन सामने आठवीं से दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी तक के प्राप्त जैन पाती है, तो दूसरी और प्राकृत और अपभ्रश में ही साहित्य में जैन मन्दिरों में नत्यादि के निषेध के वर्णन नहीं संस्कृत में भी काव्य के नये नये प्रयोग उनके द्वारा मिलते हैं. इनसे भी उक्त तथ्य की पुष्टि होती है। यह हुए। ईसा की नवीं शताब्दी में रचित 'श्री पूराराम' भी एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि इस काल के तीर्थकरों तथा 'गद्य-चिन्तामरिग' तमिल की प्रसिद्ध जैन के विशेष चिह्न, बैल आदि बनाने की प्रथा न थी और कृतियां हैं। मोहेन जोदरो की शैली इससे सर्वथा भिन्न थी। तमिल में मणि प्रवाल शैली के प्रयोक्तानों में जैन गुप्तकाल और उसके बाद जैन सम्प्रदाय और जैन कवि प्रमुख रहे हैं। संस्कृत में गद्य-काव्यों से भिन्न मनियों का योगदान केवल साधना और चिन्तन के चम्प काव्यों और मिश्र शैली के प्रवर्तक जैन मुनि और क्षेत्र में ही नहीं साहित्य और कला के क्षेत्र में प्राचार्य थे । जैन शिलालेखों से ही चम्पकाव्यों के बहत अधिक बढ़ जाता है। दक्षिण भारत में निर्ग्रन्थ निर्माण की प्रेरणा मिली । अपभ्रश में रास, रासक और महाश्रमण, श्वेतपट महाश्रमण तथा यापनीय और कूर्चक रासा काव्यों का श्रीगणेश जैन मुनियों द्वारा हा । संघों की विद्यमानता से उनके बल का पता चलता 'उपदेश रसायन रास' उपलब्ध रास ग्रन्थों में सबसे है। यापनीय संघ का विकास अधिक हुना और आगे के प्राचीन एवं जैन मुनि जिनदत्त सूरि की रचना है। अनेक गण और संघों का सम्बन्ध इसी से है । यह द्रष्टव्य 'यशस्तिलक चम्प' सोमदेव सूरि की वह अमर रचना है कि मगध में चौबीसवें तीर्थकर ने जिस परम्परा की नींव है जिसमें तत्कालीन सारा भारतीय समाज चित्रित हमा सुदृढ़ की, उसका जोर दक्षिण और दक्षिण पश्चिम भारत है। प्राचार्य हेमचन्द्र पहले प्राचार्य हैं जिन्होंने संस्कृत अधिक रहा । इस प्रकार सम्पूर्ण भारत की एकता में की प्रचलित काव्य परम्परा को विवेच्य बना कर पिष्ट जैन मुनियों का कार्य अधिक सराहनीय रहा । बौद्ध-धर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014041
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1964
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size15 MB
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