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________________ हो जाता है कि जैन तीर्थकरों के सुधारवादी दृष्टिकोण को वैदिक हिन्दू या तत्कालीन भारतीय संस्कृति के मूल तत्त्वों में समाविष्ट कर लिया गया था। भगवान महावीर उसके पोषक थे, प्रवर्तक नहीं । यह सत्य है कि सांसारिकता पर विजयी होने के कारण वे जिन कहलाये और सारा सम्प्रदाय ही जैन कहलाने लगा। परन्तु जिन वचनों में हिंसा और सदाचार पर जितना बल दिया गया है, उतनी कठोरता के साथ ब्राह्मण विरोध जन्य वचन उपलब्ध नहीं होते । बुद्ध का गृह त्याग वैदिकी हिंसा के विरुद्ध नहीं थावे जरा रोग और मृत्यु से छुटकारा चाहते थे। स्वयं महावीर का गृह त्याग केवल ज्ञान की उपलब्धि द्वारा विश्व प्राणी का कल्याण था उन्होंने बारह वर्षों तक घोर तप किया । जीवन, जाति और धर्म के समभाव पर बल देना, अहंकार से मुक्ति का निर्देश करना, अनेकान्त दृष्टि से अहिंसा का प्रतिपादन करना ऐसे तथ्य हैं जो प्रतिक्रियात्मक नहीं, समाज व्यवस्था के क्रियात्मक समन्वयन की चेष्टा है; जिसका प्रारम्भ ऋषभदेव से हुआ था । बुद्ध का मध्यम मार्ग भी एक सुधारवादी प्रान्दोलन था । यदि इसे प्रतिक्रियात्मक माना जाय तो यह वैदिकी हिंसा के प्रति उतना नहीं था, जितना अपरिमित कष्ट सहिष्णुता और कृच्छू साधना के प्रतिवाद के प्रति बुद्ध के समय तक श्रमणों के लगभग ६३ संघ थे, सभी यज्ञ विरोधी थे - ग्रहिंसक ये। उनके सपने दृष्टिकोण थे। इनमें पूर्ण कश्यप का क्रियवाद, मक्खलि गोसाल का देववाद, प्रजित का उच्छेदवाद पकु कास्यायन का प्रकृततावाद, निठ नाम का समन्वयवाद, संजय बेलतिका प्रनिश्चि ततावाद, दीर्घनिकाय में चर्चा के विशेष विषय बने हैं । श्रमण संघ के ये अधिष्ठाता स्वयं एक मत न थे, किन्तु साधना और तप द्वारा समाज का ग्रादर ग्रवश्य प्राप्त कर चुके थे। ये सभी कृ साधना के प्रतिवाद से भी पीड़ित फलस्वरूप जब बुद्ध ने मध्यम मार्ग थेका निर्देश कर दिया तो उस सहज साधना को सबने अपना लिया। बुद्ध संघ प्रबल हो गया और शेष संघ उसमें समाहित हो गये या जातक के इस कथन से इसकी पुष्टि होती है— Jain Education International - 'यदा च सर सम्पन्नो बुद्धो धम्मं प्रदेसयि । ग्रंथ लाभो च सक्कारो तित्थियानं ग्रहायथा' तिं ॥ जैन संघ का बल भी क्षीण हो गया । यह द्रष्टव्य है कि बुद्ध ने वही सुधारवादी पद्धति अपनायी जिसका प्रचलन ऋषभदेव आदि से हुआ था। अतः ऋषभदेव और बुद्ध तो तारों में परिगणित हो गये, पर प्रतिवादी साधना के कारण महावीर तीर्थंकर ही रहे । ऋषभदेव, श्ररिष्टनेमि, पार्श्वनाथ और महावीर द्वारा प्रवर्तित प्राध्यात्मिक परम्परा त्याग और तप को प्रमुखता देती रही, इसीलिए वे सम्पूर्ण भारतीय समाज के लिए मादर के पात्र रहे; भने ही उन्होंने यशीय हिंसा का विरोध करते करते वेदों का ही विरोध कर डाला हो । सन्यास, साधना, कृच्छतप निस्पृहता और वैराग्य के प्रतिष्ठापक इन जैन तीर्थकरों ने समाज को संतुलित रखने का महान् प्रयत्न किया। वृहस्पति और पार्वाक हेय और निद्य माने गये; परन्तु जैन तीर्थकर सदाचार के कारण ही समाज के आदरणीय बने । मौर्यकाल में जैन तपस्वी समस्त सिम्तटवर्ती प्रदेश में फैले हुए थे । मगध में तो जैन धर्म प्रबल था ही चन्द्रगुप्त मौर्य के सम्बन्ध में भी यह अनुश्रुति है कि वे जैन थे और मगध में पढ़ने वाले अकाल के कारण दक्षिण भारत की ओर सदल बल आये और अनशन द्वारा प्राण त्याग किया। इस सम्बन्ध में एक शिलालेख भी मिलता है पर यह जैन सिलास चन्द्रगुप्त मौर्य से लगभग बारह तेरह सौ वर्ष बाद का है और अनुश्रुति पर ही साधित है। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि मौर्य काल तक जैन परम्परा, उसके नियम, भारतीय समाज के सामान्य वर्ग के लिए ही नहीं राजवर्ग के लिए भी अनुकरणीय बन गये थे । जैन धम के प्रचार का पता अशोक के कुछ अभिलेख भी देते हैं मौर्य काल में ही भद्रबाहु के नेतृत्व में जैन श्रमणों ने मैसूर और दक्षिण भारत में जैन धर्म का प्रचार किया। ई० सन् की पहली शताब्दी में खारवेल ने जैन धर्म स्वीकार किया। कुदान काल में मथुरा और भ्रमण बेत गोला जैन धर्म के प्रमुख केन्द्र रहे। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014041
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1964
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size15 MB
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