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________________ ११६ और व्यवहार के पार्थक्य ने व्यवहार पर अधिक बल देकर वैज्ञानिक प्रगति और भौतिक विकास को इतना ? प्रश्रय दिया है कि आज मनुष्य प्रकृति पर शक्ति की दृष्टि से विजयी हो रहा है । किन्तु इसके साथ २ प्राध्यात्मिक मूल्यों को केवल सैद्धान्तिक घोषित करके और उन्हें व्यावहारिक जीवन से पृथक् मानकर उनकी इतनी अवहेलना की गई है कि पश्चिमीय जीवन में व्यक्तित्व का प्राध्यात्मिक विकास श्राज तक भी पिछड़ा हुआ रह गया है । पश्चिमीय प्राचार शास्त्रियों की धारणा है कि वर्तमानयुग में जबकि उपयोगितावादी वातावरण हमारी तर्क की धारणा पर प्रभुत्व जमाए हुए है, सैद्धान्तिक सद्गुणों को सर्वश्र ेष्ठ नहीं माना जा सकता । यदि कोई श्रेष्ठ सैद्धान्तिक सद्गुण हैं, वे आध्यात्मिक मूल्यों पर आधारित न हो कर उपयोगिता पर आधारित, जीवन के उच्चत्तम मूल्यों से समन्वित वैज्ञानिक सद्गुण हैं। वर्तमान समय में श्राध्यात्मिक मूल्यों को श्रेष्ठ स्वीकार करते हुए भी यह स्वीकार नहीं किया जाता कि जो व्यक्ति इन मूल्यों को अपनाने वाले हैं, वे उन साधारण व्यक्तियों से श्रेष्ठ हैं जो कि व्यावहारिक सद्गुणों का अनुसरण करते हैं । पश्चिमीय प्राचारशास्त्र में यह प्रवृत्ति प्रजातन्त्रीय दृष्टिकोण पर प्राधारित है प्रौर सैद्धान्तिक सद्गुणों को प्रव्यावहारिक घोषित करती है । यहां पर इस पश्चिमीय दृष्टिकोण की भारतीय दृष्टिकोण से तुलना करना अनुचित न होगा। भारतीय आचारशास्त्र की दृष्टि से श्रर्थ, काम, धर्म और मोक्ष चारों मूल्यों को मनुष्य के जीवन के विकास के लिए श्रावश्यक माना जाता है। इन चारों मूल्यों में से अर्थ और काम को धर्म की अपेक्षा गौण माना जाता है और धर्म, अर्थ तथा काम को मोक्ष की अपेक्षा गौण स्वीकार किया जाता है । मोक्ष उच्चतम प्राध्यात्मिक मूल्य है और धर्म एवं नैतिकता उसका साधन है । इसका अभिप्राय यह नहीं कि अर्थ और काम, जिनमें कि साहस और संयम की प्रावश्यकता रहती है, अवांछनीय मूल्य हैं । विपरीत, इन दो मूल्यों को प्रथम स्थान इसलिए दिया गया है कि इन पुरुषार्थों की प्राप्ति के बिना धर्म एवं नैतिकता का अनुसरण करना असम्भव और धर्म के बिना मोक्ष का चरम लक्ष्य कदापि उपलब्ध नहीं हो सकता । पुरुषार्थों पर आधारित यह प्राचीन नैतिक सिद्धान्त निस्सन्देह व्यावहारिक तथा सैद्धान्तिक सद्गुणों एवं नैतिकता का सुन्दर समन्वय है । इसके विपरीत, अरस्तू का व्यावहारिक तया सैद्धान्तिक सद्गुणों का वर्गीकरण विश्लेषणात्मक होने के कारण पार्थक्य तथा द्वतवाद को जन्म देने वाला 1 हमें यह तो स्वीकार करना पड़ेगा कि पश्चिम में सिद्धान्त Jain Education International इसका अभिप्राय यह नहीं कि भारतीय जीवन में व्यक्तित्व का समन्वित विकास हुआ है । इसके विपरीत, राजनैतिक तथा ऐतिहासिक दुर्घटनाओं के कारण भारत में भी जहां तक जनसाधारण के जीवन का सम्बन्ध है, सिद्धान्त और व्यवहार में एक बड़ी खाई उत्पन्न हो गई है। भारतीय श्राध्यात्मवादियों ने मोक्ष के पुरुषार्थं पर आवश्यकता से अधिक बल देकर और निवृत्ति मार्ग को ही एकमात्र उसका साधन मान कर भौतिक तथा व्यावह रिक मूल्यों का इतना तिरस्कार किया है कि कुछ सीमा तक भारतीय दृष्टिकोण में निराशावाद उत्पन्न हो गया है । यही कारण है कि पश्चिमीय देशों में भारतीय दर्शन के प्रति अनेक भ्रान्तियां प्रचलित हैं और भारतीय दर्शन को नैतिकता शून्य, पारलौकिक और निराशावादी दर्शन ही माना जाता है । मैंने स्वयं संयुक्त राज्य अमेरिका के विश्वविद्यालयों में भारतीय दर्शन के प्रति इन भ्रान्त धारणाओं का अनुभव किया । मैं जिस जिस स्थान पर भारतीय दर्शन के अध्यापन के लिए गया तो मुझे यह जान कर प्राश्वर्य हुआ कि भारतीय दर्शन का एक निराशावादी सिद्धान्त बुद्धवाद वहां पर अत्यन्त प्रभावशाली था और प्रायः सभी अमरीकी अध्यापक तथा छात्र भारतीय दर्शन के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ थे । इन भ्रन्तियों का मूल कारण यह है कि विदेशी साम्राज्यवादियों ने भारतीय दर्शन के वास्तविक स्वरूप को जानने की चेष्टा नहीं की और न ही भारतीय दर्शन को पनपने का अवसर दिया। जब तक भारत परतन्त्र रहा, तब तक उसकी भौतिक और वैज्ञानिक प्रगति अवरुद्ध रही । किन्तु इसके साथ ही साथ भारत के For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014041
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1964
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size15 MB
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