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अहिंसा का व्यापक चिंतन और आचार
• जवाहिरलाल जैन
मानव में जीने और जानने की मूलभूत प्रवृत्तियां हैं। प्राणियों की हिंसा से बचने का प्रयत्न इस देश में बहुत
जीने की प्रवृत्ति पशु में भी है पर मानव में अधिक रहा । चिंतन. वाणी, भाषा और लेखन के विकास और विस्तार लेकिन अहिंसा का एक पहल हिंसा से बचने का. ने उसके ज्ञान का बढ़ाया है, विवेक का विकासत किया हिंसा न करने का है. तो दूसरा पहलू प्राणियों के कष्ट है, इसी से मानव में सभ्यता और संस्कृति का विकास को दूर कर उनकी सेवा करने का, उनको अधिक हमा है। जहां सभ्यता और संस्कृति है वहां मानव- सुखी बनाने का भी है । ऐसा लगता है कि इस दिशामें समाज में अपनी सुरक्षा, कमजोर को संरक्षण, जियो इस देश में अपेक्षाकृत चिंतन कम हया । यद्यपि पक्षियों और जीने दो का चिार और दूसरों के लिए स्वयं कष्ट- के रोग हर करने के उनको चारा-दाना देने के लिए महत और त्याग तथा बलिदान की भावना और प्राचार
मा पार प्राचार चिकित्सालयों के कुछ उदाहरण मिलते हैं और गायों के पनपे और बलवान बने हैं। संक्षेप में यह कहा जा सकता लिए पिंजरापोलों की व्यवस्था भी हर देश में व्यापक है कि मानव-सभ्यता और संस्कृति अहिंसा के विचार के रही है पर गायों के अतिरिक्त अन्य प्राणियों के लिए विकास पर ही आधारित हैं । यह अवश्य है कि विभिन्न ऐसी व्यवस्थाएं कम ही सोची गई और रोगियों की, यगों और देशों में इस विचार के विभिन्न पहलुओं पर घायलों की सेवा की सामूहिक और व्यापक परम्परा विभिन्न परिमारण में जोर दिया गया है और वह कुछ ज्यादा नहीं बनी और मानव-समाज में गरीबी, विषमता, उनकी अपनी-अपनी' परिस्थितियों और मानव-समूहों की बीमारी क्यों होती है और उसे किसी विशेष प्रकार विकास-श्रेणी के अन्तर का प्रभाव है । यह सारा का समाज-संगठन के द्वारा दूर किया जा सकता है या नहीं सारा अध्ययन अपने आपमें बहुत रोचक, ज्ञान वह क इस दिशा में भी बहुत अधिक नहीं सोचा गया । हो और उपयोगी है।
सकता है कि आवागमन और भाग्य के सिद्धांतों की भारत में अहिंसा का विचार मुख्यतः पशुओं के प्रबलता के कारण हर तरफ ज्यादा ध्यान भारतीय प्रति करुणा से प्रारंभ हुमा लगता है । यज्ञों में की संस्कृतियों का न गया हो। जाने वाली पशु-हिंसा का विरोध भी इसी का परिणाम मध्यपूर्व में उत्पन्न होने वाली यहदी, ईसाई और है और मांसाहार निषेध का जो महान् और व्यापक इस्लामी संस्कृतियों में मांसाहार निषेध पर जोर कम प्रयोग भारतीय सभ्यता और संस्कृति में गये हजारों रहा, यद्यपि रोजा, उपवास आदि के द्वारा प्राहार में वर्ष से चला है, वह भी इसी का सूचक है। वैदिक, संयम पर विचार किया गया और अमुक पशु का मांस बौद्ध और जैन सभी संस्कृतियों में इसके विचार और न खाया जाय, या केवल मछली ही उपवास के दिन प्राचार पर गंभीर चितन चला और अनेक पद्धतियां खाई जाय पर सोचा गया । मानवों की सेवा का विचार प्रयोग में लाई गई। जैन सूक्ष्म प्राणियों तक की हिंसा विशेष हमा, घायल रोगी-कोढ़ी प्रादि के दुःख हर करने के बचाव की दिशा में बहुत गहराई में गये। मानवेतर पर जोर दिया गया। सूदखोरों का निषेध हमा।
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