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________________ बनाकर शक्ति और प्रेम का चित्रण किया वहां गंगा कवयित्रियों ने लीलाओं का बाई, सोढ़ानाथी, सौभाग्य कुंवरी आदि कृष्ण को अपना प्राराध्य बनाकर विविध गान किया । प्रवीण राय पातुर जैसी कवयित्रियां शृंगारिक प्रवृत्तियों को चित्रित करने में भी पीछे न रहीं । १०२ इन विभिन्न प्रवृत्तियों और धाराओं के समानान्तर ही जैन काव्य धारा भी प्रवाहित होती रही । पर अब तक के शोध कर्त्ताओं का ध्यान इस विशिष्ट काव्यधारा की साधना करने वाली कवयित्रियों को प्रोर नहीं गया। इसका प्रधान कारण जैन भण्डारों की अव्यवस्था तथा उनके ग्रन्थों की सूचियों के प्रकाशन का प्रभाव रहा। पिछले दिनों जब हमने 'आचार्य बिनय चन्द्र ज्ञान भण्डार' लाल भवन, जयपुर के संग्रह को देखा तो श्वेताम्बर परम्परा की कुशलांजी, रूपांजी गुलाबांजी लाछांजी, केसरजी, भूर सुन्दरीजी, चन्दाजी, लज्जावतीजी, सौभाग्यवतीजी, जड़ावजो प्रादि जैन विदुषो कवयित्रियों का पता चला। अन्य जैन भण्डारों के अवलोकन से मौर कवयित्रियां भी प्रकाश में आ सकती हैं । प्रस्तुत निबन्ध में हम जड़ावजी की काव्य-साधना पर संक्षेप में प्रकाश डाल रहे हैं । जड़ावजी का जीवन वृत्त जड़ावजी का जन्म वि० सं० १८६८ में हुआ । बाल्यावस्था में ही सेठों की रीयां ( मारवाड़ ) में इनका विवाह कर दिया गया । कुछ समय बाद ही इनके पति का देहान्त हो गया । परिणाम स्वरूप इन्हें संसार के प्रति विरक्ति हो गई । कालान्तर में यह वैराग्य भावना बलवती हुई और २४ वर्ष की अवस्था में संवत् १६२२ में जड़ावजी से प्राचार्य रतनचन्दजी महाराज के सम्प्रदाय की प्रमुख शिष्या रंभाजो के हाथों दीक्षा अंगीकृत कर लो । रंभाजी के सान्निध्य में रह कर ही जड़ावजी ने विविध ग्रंथों का अध्ययन किया । सं० १६४६ तक ये रंभाजी के साथ विहारादि करती रहीं । रंभाजो को १६ विशिष्ट शिष्याएं थीं। जड़ावजी उनमें प्रधान थीं । काव्य-रचना की प्रतिभा र क्षमता के कारण इन्हें प्रसिद्धि भी खूब मिली। ये रंभाजी के साथ जोधपुर, बीकानेर अजमेर मादि क्षेत्रों में विचरण करती रहीं । Jain Education International सं० १६४६ में रंभाजी का स्वर्गवास हुआ। इधर जड़ावजी की नेत्र ज्योति भी धीरे-धीरे क्षीण होने लगी । फलतः सं० १६५० से अन्तिम समय तक ये जयपुर में ही स्थिरवासी बन कर रहीं। गर्मी के दिनों में प्रायः दाह ज्वर की प्रबल वेदना से ये पीड़ित रहती । सं० १६७१ के ज्येष्ठ मास में यह वेदना अधिक प्रबल हो उठी । अन्ततः सं० १६७२ ज्येष्ठ कृष्णा १४ को दिन के दो बजे जयपुर में इनका स्वर्गवास हुआ । इनकी सेवा में इनको बड़ी शिष्या तेजकंवर अधिक रही । जसकंबर, मल्काजी, आदि साध्वियों ने भी मनोयोग पूर्वक इनकी परिचर्या की । जड़ावजी की काव्य साधना जैन पुरुष कवि तो कई हुए हैं पर जैन स्त्री कवियों की संख्या नगण्य है । सती जड़ावजी जैन कवयित्रियों में नगीने की तरह जड़ी हुई प्रतीत होती हैं । कविता करना उनको जीवन चर्या का एक प्रङ्ग बन गया था। ५० वर्ष के सुदीर्घ साधना काल में जड़ावजी ने जीवन के विविध अनुभव आत्मसात कर काव्य में उतारे । उनका जीवन जितना साधनामय था काव्य उतना ही भावनामय । प्रवृत्तियों के आधार पर इनको समस्त रचनाओं को ४ भागों में बाँटा जा सकता है (१) स्तवनात्मक (२) कथात्मक (३) उपदेशात्मक और (४) तात्विक । १. स्तवनात्मक स्तवनात्मक रचनाओं में श्रद्धय लौकिक पुरुषों और लोकोत्तर पद प्राप्त करने वाले विशिष्ठ महापुरुषों तीर्थंकरादि का गुरण कीर्तन किया गया है । यह गुण कीर्तन किसी लोकेषणा का प्रतिफल न होकर ग्रात्मशक्ति को प्रबुद्ध करने का माध्यम तथा श्रद्ध ेय के गुणों को प्रात्म सात करने का विनम्र प्रयत्न है । जड़ावजी की इस कोटि की रचनाओं के दो स्पष्ट वर्ग हैं। पहले वर्ग में तीर्थंकर, अरिहंत, गणधर, सतियां श्रादि आती हैं । दूसरे वर्ग में कवयित्री के सम्पर्क में प्राने वाले संत-महात्मा हैं | तीर्थंकरों में सामान्य रूप से २४ तीर्थंकरों का स्तवन किया गया है। इस काव्य रूप को For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014041
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1964
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size15 MB
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