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समझ सकता है | राजस्थानी बालावबोध में मूल के अर्थ को स्पष्ट करने के लिए परम्परागत, जातक अथवा मनगढन्त कथायों का बड़ा संग्रह रहता है किन्तु ढाड़ी के बालावबोधों में यह बात नहीं । वहां तो बालावबोध टीकाकार मुलं छंद का ग्रन्वय करते हुए प्रत्येक शब्द के अर्थ को खोल खोल कर समझाता चलता है । तदुपरान्त दो-तीन पंक्तियों में मूल छंद का साधारण अर्थ लिख कर उसका संक्षिप्त भावार्थ भी लिख देता है - यदि कहीं प्रावश्यकता हुई तो । शैलो को दृष्टि से ढूंढ़ाड़ी बालावबोध राजस्थानी बालावबोध से भले हो भिन्न हो किन्तु उसका मुख्य उद्देश्य बालक को समझाने के समान सरल, सोधे व स्पष्ट ढंग से कहना राजस्थानी बालाववोध से भिन्न नहीं कहा जा सकता 1 उदाहरण:- प्रात्मनश्चितयैवालं मेचकामेचकत्वयोः । दर्शनज्ञानचारित्रः साध्यसिद्धिर्न चान्यथा ॥ 'मेचका मेचकत्वयोः श्रात्मनः चिन्तया एव प्रलं' - मेचक कहतां मलिन, अमेचक कहतां निर्मल इसौ छै दोइ नय पत्तपातरूप । श्रात्मः कहतां चेतन द्रव्यकौ, चिन्तया कहतां विचारुतेनै विचारे, श्रलं कहतां पूरी होउ । इसमें विचारतां पुनि साध्यसिद्धि नहि 'एव' कहता इसौ निहची जानिव ।
स्वरूप
भावार्थ - इसी जु श्रुत ज्ञानकरि ग्रात्म विचारतां बहुतविकल्प ऊपजै छै । एक पक्ष विचारतां श्रात्मा अनेक रूप छे, दूर्ज पक्ष विचारतां श्रात्मा श्रभेद रूप छै, इसी विचारतां फुनिं स्वरूप अनुभव नहीं । इहां कोई प्रश्न करे छे विचारतां तो अनुभव नहीं, अनुभव क्यों छै ? ऊतरुः — इसौ जु प्रत्यक्षपनै वस्त कौ स्वाद करतां अनुभव छे सोइ कहि जे छ ।
' दर्शनज्ञानचारित्रैः साध्यसिद्धि' - दर्शन कहतां शुद्ध स्वरूप को अवलोकन, ज्ञान कहतां शुद्ध स्वरूप को प्रत्यक्षपने जानपनौ, चारित्र कहतां शुद्धस्वरूप को आचरण; इसी कारण कहतां साध्यसिद्धि-साध्य कहतां
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सकलकर्म क्षय लक्षण मोक्ष, तिहि की सिद्धि कहता प्राप्ति होइ ।
भावार्थ - इसउ जु शुद्धस्वरूप को अनुभव मोक्ष' को प्राप्ति छै । कोई प्रश्न करेछै-जु इतनी ही मोक्षमार्ग छै? कै कोई श्ररु भी मोक्ष मार्ग छे ? ऊतरु -- इसी जु इतनी ही मोक्ष मार्ग छे - ' न चान्यथा' - च कहतां पुनः अन्यथा कहतां अन्य प्रकारन कहतां साध्य सिद्धि नहीं ।
वचनिका - राजस्थानी गद्य में 'वचनिका' का प्रयोग टीका के अर्थ में नहीं हुआ प्रत्युत ऐसे गद्य के रूप में, जिसमें गद्य के साथ-साथ पद्य का भी प्रयोग हो; दूसरे शब्दों में राजस्थानी 'वर्षानिका' को 'चम्पू' कहा जा सकता है । ढाड़ी गद्यकारों ने 'वचनिका' शब्द का प्रयोग संस्कृतादि भाषाम्रों में लिखे गये ग्रन्थों का जनसाधारण की भाषा में अनुवाद के अर्थ में किया है । वचनिका, टब्बा और बालावबोध दोनों से अधिक बोधगम्य और विस्तृत टीका होती है । इसमें सबसे पहले मूल छंदका साधारण अर्थ लिख दिया जाता है फिर भावार्थ के रूप में उसकी खुलकर व्याख्या की जाती है । व्याख्या को अधिक स्पष्ट करने के लिए वचनिकाकार कभी-कभी उदाहरणों का सहारा भी लेता है ।
उदाहरण:
नित्यतां केचिदाचख्युः केच्चिचानित्यतां खलाः । मिथ्यात्त्वान्नैव पश्यन्ति नित्यानित्यात्मकं जगत् ॥
अर्थ - केतौ वस्त को नित्यपणां ही कह हैं बहुरि केई अनित्य ताही कह हैं पर यह जगत् नित्यानित्य स्वरूप है ताहि मिथ्यात्व के उदय करि नाहीं देखे हैं ।
भावार्थ - सांख्य, नैयायिक वेदान्त मीमांसक मत्त के तौ आत्मा कु नित्य हो माने है पर जगत कू' प्रनित्य विद्यादि का विलास भ्रम रूप माने है । श्रर कहै हैं जो श्रात्मा की अनित्य मानें तो श्रात्मा का नाश होय तब नास्तिक मत्त प्रा; अर नित्यानित्य स्वरूप मानें तो
३. वही, पृ. १४
४. राजमल्ल कृत समयसार कलश टीना- पृ. २७
५. शिवस्वरूपशर्मा कृत राजस्थानी गद्य साहित्य का उद्भव और विकास पृ० २५
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