SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 122
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ... ३. दुवादि दोष ताके न लेस, सीमा है । जैन धर्म का यह पक्ष भागवत सम्प्रदायों में . ग्यानादिक गुन पीजे असेस ॥3 प्रस्फुटित नहीं हो पाया है। उन सम्प्रदायों में वह केवल ४. जीवा जीव पदारथ जेते दार्शनिक रूप तक सीमित होकर समाप्त होगया है । __ लोकालोक अछेव । नवल की यह अभिव्यक्ति सराहनीय है। अपने ऐसे ही जुगपति येक समैं सवहि पाराध्य के सामने उन्हें अपने अवगुणों को प्रगट करते को है जानन की टेव ॥४ हुए तनिक भी संकोच नहीं होता । भक्त अनुभव करता उपरोक्त आधार पर कहा जा सकता है कि नवल के है कि वह स्वयं हिंसा, लोभ, असत्य, अस्तेय और परनिंदा प्रादि अवगुणों का दास है, परतिय की रूपउपास्य का बाह्य स्वरूप अत्यन्त शान्त छवि से सम्पन्न हैं, माधुरी उसे अपनी ओर ललचाती हैं, संचय करने की उनका दर्शमात्र ही सारे भ्रमों के निराकरण का साधन हैं, सभी अमंगलकारी प्रभावों को दूर हटाने वाला है। पादत उसका पीछा नहीं छोड़ती। इन्हीं सब कारणों से विवश होकर वह अपने प्रात्मनिवेदन में कहता है। नवल के पाराध्य-बाह्य और प्राम्यंतर दोनो प्रकार के पहिग्रह से दूर, आत्मानुकूल कार्य करने के प्रेरक एवं प्रभु जी ! मैं बहुत कु-बुद्धि करी। .. तप द्वारा ज्ञान उत्पन्न कराने वाले तथा प्राठों प्रकार के थावर जंगम जीव सताये करुणा उर न धरी ।।.. कर्मों के बंधन से छुटकारा दिलाने वाले हैं। उनमें स्वयं ये जी लोभ लग्यो विषयन संग राच्यौ निज सुध विसरी। क्षुधा आदि दोषों की लेशमात्र भी स्थिति नहीं: वहां तो झूठ ही झूठ वचन मुख भाख्यौ, पर धन लेतन डरी।। केवल मात्र ज्ञान ही की उपलब्धि है । उनके उपास्य की ये जी बहु प्रारंभ कियौ मन मान्यौ पर निंदा उचरी। दृष्टि में जीब-अजीव, लोक-अलोक सभी समान हैं। पर-तिय रूप निरखि ललचानौ परिग्रह भार भरी।। ये जी और अन्याय करी मैं जेती तुम जानत सगरी । उपास्य के स्वरूप में उपरोक्त गुरण केवल जैन धर्न या ते 'नवल' सरनि अब पकरी है प्रभु विपति हरी।। के अनुरूप ही नहीं है वरन प्राय: सभी धर्मों में उपास्य के इसी प्रकार वर्णन पाये जाते हैं । आगे चलकर नबल यह आत्म-बोध कि वह पाप का भंडार और ने उन्हें 'जगनायक' तक कह दिया है- . . अनाचार का वृहत कोष है भक्त को अपना प्रायश्चित्त . करने की प्रेरणा देता है तथा उसे भक्ति की ओर प्रवृत्त १. तेरे जगनायक नाम सही। करता है। जीवन के इसी मनोवैज्ञानिक सत्य के दर्शन जगत उधारक दीसत हो तुम हमें नवल की उपरोक्त पंक्तियों में होते हैं। कर्म के निहचे मो परतीति भई॥५ फन्दों में जकड़े रहने तथा लोभ-मोह में फंसे रहने का २. जगत नायक जगबंदन कहिये उल्लेख कवि ने अनेकों स्थानों पर किया है। अपने यही जगत में सारवे। उपास्य नाभि-कुमार से अपना उद्धार करने की प्रार्थना उन्होंने अनेक स्थलों पर की है । क्योंकि कवि का रटल दीन दुखी सव ही के रक्षक कहिए अरु निरवारिन ।।६। विश्वास है कि भक्त का उद्धार उपास्य की कृपा या अध्यात्मक स्वरूप के उपरान्त सार्वजनिक नेता के अनुग्रह पर ही अवलम्बित है । रह-रह कर भक्ति अपने रूप में अपने उपास्य की परिणिति मानववाद की चरम उपास्य का ध्यान इस ओर भी दिलाता जाता है कि ३. वही, पत्र ६ ४. वही, पत्र १४ ५. महावीर शोध संस्थान जयपुर से प्राप्त । ६. पद संग्रह ६२,६-२, वधीचंद मंदिर जयपुर । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014041
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1964
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy