SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्म व संस्कृति की प्रात्मा • सत्यदेव विद्यालकार नई दिल्ली मानव जीवन की प्रयोग शाला में जो सांस्कृतिक अनुसंधान सदियों तक निरन्तर होते रहे उनका निचोड़ जैन धर्म कहा जा सकता है....."वह ऐसी कोई बनी बनाई अथवा घड़ी हुई व्यवस्था नहीं थी जिसमें रंग मंच की तरह मानव को लाकर खड़ा कर दिया गया हो । वह तो अनुभूत प्रयोगों की ही निष्पत्ति है जिनका सूत्रपात भगवान ऋषभदेव के समय हया और जिनका भ्रम निरन्तर बना ही रहा। रतीय जीवन का प्रवाह यदि एक महानद के स्थिति अथवा महत्त्व नहीं है। धर्म पर आचरण करने समान है, तो उसके दो किनारों को 'वैदिक' वालों के बिना धर्म स्थिर नहीं रह सकता । श्रीकृष्ण ने व 'श्रमण' नाम दिया जाना चाहिए। धर्म समाज के इसी स्थिति को "धर्मग्लानि" कहा है। समाज में धर्म जीवन का नियमन करता है, तो संस्कृति उसका नियंत्रण के प्रति ग्लानि पैदा होकर जब उस पर आचरण करना करती है । पावार-विचार और व्यवहार के लिए व्यव- छोड़ दिया जाता है, तब समाज में अव्यवस्था पैदा हो स्था देने वाला धर्म है, तो उस व्यवस्था को व्यावहारिक जाती है। समाज की इस हानि को ही धर्म की हानि रूप देने का काम संस्कृति करती है । दूसरे शब्दों में यह कहा गया है । तात्पर्य यह है कि धर्म की हानि उसके भी कहा जा सकता है कि धर्म जब मानव जीवन में अनुसार या अनुकूल पाचरण न करने में ही है । इसलिए व्यावहारिक रूप धारण करलेता है तब उसे संस्कृति के धर्म के विधि विधान की अपेक्षा उस विधिविधान के नाम से पुकारा जाता है। इसीलिए धर्म और संस्कृति अनुसार प्रावरण करना कहीं अधिक महत्त्व रखता है। दोनों को मुख्यतः व्यवहार की कसौटी पर कसा जाने श्रमण संस्कृति के अनुसार इसको सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान की आवश्यकता है। और सम्यक् चरित्र कहा गया है। वैदिक संस्कृति में भी इसी प्रकार जीवन में धर्माचरण का समावेश करने धर्म का व्यवहार के लिए जो स्तुति, प्रार्थना और उपासना शब्दों का धर्म की प्रात्मा क्या है ? इस प्रश्न की दार्शनिक प्रयोग किया गया है। वह भी एक भ्रम को ध्याख्या बहुत अधिक. को गई है, परन्तु व्यावहारिक बतलाता है। दृष्टि से विचार किया जाय तो इस परिणाम पर पहंचना प्रप्रासंगिक न होगा कि धर्म की आत्मा उसके व्यवहार धर्माचरण का महत्त्व में ही नीहित है । एक जैनाचार्य ने यह बिल्कुल ठीक श्रमण संस्कृति के सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और ही कहा है कि धर्मो धामिकैबिना" अर्थात् धर्म पर सम्यक चरित्र का अभिप्राय संक्षेप में यह है कि माचरण करने वाले धार्मिक लोगों के बिना धर्म की कोई धर्माचरण की पहली सीढ़ी उसकी सम्यक श्रद्धा प्राप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014041
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1964
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy