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________________ कि उसमें सद्विचार और सदाचार का उदय हो। लोक जीवन की निर्बल भूमिकामों में वस्त्र, व्यापार प्रादि की में दंभ, द्वेष, और घणा का उन्मूलन करने के लिये भी अपेक्षा रूप चारित्र का जो विकार शेष रहा होता है यही आवश्यक है कि हम अपनी वासनायें घटायें और वह भी शुद्ध अहिंसाचरण से शनैः शनैः जीवन से परिग्रह की संचय वृत्ति घटा कर सभी प्राणियों को अपने बहिष्कृत होता जाता है और जीवन निरपेक्षता की स्वत्व की उपलब्धि का अवसर दें। उच्चतर भूमिकाओं पर प्रारोहण करता हा अंत में प्रमत्त-योग पूर्वक चित्-विकार के अभाव के रूप में पूर्ण निरपेक्ष अथवा मुक्त बन जाता है । जीवन की इस उच्चतम निरपेक्षता को सिद्ध अथवा परमात्मा कहते अहिंसा का स्वरूप हृदयंगम कर लेने पर विश्व के स्व । हैं। और यह परम निराकुल निविकार स्थिति ही संचालन क्रम बद्ध जीवन-प्रवाह पर अपना स्वत्व स्थापित करके उसमें पद पद पर हस्तक्षेप करके उस । _अहिंसा का अमृत फल हैं। प्रवाह क्रम को अपने अधिकार में लेने के अहं रूप महा यही महावीर की अहिंसा का अनेकांतिक दर्शन है पाप का तो अंतिम संस्कार हो ही जाता है साथ ही और यही महावीर के दर्शन की अनेकांतिक अहिंसा है। राग मांद जब आतम अनुभव आत्रै तब और कछु ना सुहावै ॥टेक।। रस नीरस हो जात तत्क्षण - अक्ष विषय नहीं भावे॥॥ गोष्ठी कथा कुतूहल विघटै पुद्गल प्रीति नशावे॥ राग द्वेष जुग चपल पक्षयुत मन पक्षी मर जावै ॥२॥ ज्ञानानन्द सुधारस उमगै घट अन्तर न समावै ।। 'भागचन्द' ऐसे अनुभव को हाथ जोरि शिर नावै ॥३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014041
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1964
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size15 MB
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