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पूर प्राघाट आदि मंडपिकानों से दान की भी व्यवस्था और वंशावलियां ही मिलती है। प्रोसवालों की प्राधुनिक की। कई बार इन मंडपिकानों से सीधा ही दान दे जातियां मध्यकाल में ही स्थिर हो चुकी थी। उस दिया जाता था। सोडेराव के वि० सं० १२२१ के लेख काल की विशेषता यह भी है कि श्रेष्ठियों के नाम प्रायः में २६ कल्हण सोनगरा की माता मानलदेवी ने एक शब्दात्मक थे। लेख पूरा संस्कृत में होते हये भी राजकीय भोग में से एक दापल ज्वार देने की व्यवस्था श्रेष्ठियों के नाम लोकिक भाषा में ही मिलते हैं। की थी। इनके अतिरिक्त कई प्रकार के करों का भी कई श्रष्ठि लोग संघ निकाला करते थे। संघपति की उल्लेख मिलता है। प्राबू के वि० सं० १३५० के उपाधि धारण करना गौरव की बात मानी जाती सारंगदेव बाथैला और १५०६ के कुभा के लेखों में है। वि० सं० १३५२ के खंभात के एक लेख में ऐसे करों का उल्लेख है जो जैन मंदिरों के दर्शनार्थ मालवा, चितोड एवं सपादलक्ष से यात्रियों के माने का माते थे।
उल्लेख है। ... सामाजिक दृष्टिकोण से भी ये लेख बढे महत्व के जैन सामग्री का शोध होने पर और भी कई हैं। इनमें विविध जातियों की व्युत्पति, उनके इतिहास महत्वपूर्ण सामग्री प्राप्त हो सकती है।
महावीर के युग में हिंसा, सम्प्रदायवाद और जातिवाद भारतीय राष्ट्र की शक्तियों को छिन्न-भिन्न कर रहे थे। भगवान ने इन शैतानों को मानव मानस से निकालने के लिये जो अविश्रान्त प्रयास किया उसे इतिहास कभी नहीं भूल सकता।
__यदि हमें मानव को वास्तविक और स्थायी मान देना है तीर्थंकर महावीर के उपदेशों को जन-जन के हृदय तक पहुँचाना चाहिये।
२६. प्रमेह श्री करहण देव राज्ये तरयमातृ राज्ञी मानल देव्या श्री षंडरेकी मूलनायक महावीर देवाय
चैत्रवदि १३ कल्याणक निमित्तं राजकीय भोग मध्यात् युगंधर्माः हाएता एकः प्रदतः।
ध्यदेश्य श्री डिरेकी मुलनायक महावीर देवा
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