SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 106
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चलता है कि उत्तरी भारत में जैनधर्म राजस्थान से . उडीसा तक प्रचलित था । खारवेल मगध से एक "कलिंगजिन" को मूर्ति भी लाया था जिसे उसने अपने राज्य में प्रतिष्ठित किया था । संभवतः भगवान महावीर के समय में भी जैन तीर्थंकरों को प्रतिमाएं बनना शुरू हो गई थी उडीसा में खारवेल के पहले भी जैन धर्म प्रचलित था । खंडगिरी के जैन स्तूप में किसी 'श्रर्हत्' की अस्थियां भी रखी जाना ज्ञात हुआ है । कालकाचार्य कथानक भी बड़ा प्रसिद्ध है । इसके - अनुसार जैनाचार्य कालकाचार्य उज्जैन के राजा गर्द के प्रत्याचारों से तंग आकर शक राजा के पास गये और उन्हें भारत श्राक्रमरण के लिए प्रेरित किया । यह घटना चीर निर्वारण के ४५३ के प्रासपास सम्पन्न हुई मानी जाती है । मथुरा से कनिष्क के वंशजों के शासन काल के कई जैन लेख मिले हैं। जिनमें तत्कालीन राजाओं और उनके शासन काल के संवत दिये हुये हैं । वल्लभी, भीन • माल और गुजरात के प्रारंभिक इतिहास के लिए जैन सामग्री बड़ी महत्वपूर्ण है । वल्लभी खंडन ३ बार होना जैन साहित्य में प्रसिद्ध है । पहला खंडन, वि सं ० ३७५ के आसपास, दूसरा वि० सं० ५१० एवं तीसरा ८४५ में । ७ भीनमाल का उल्लेख वि० सं० ७३३: में लिखी निशोथ चूरिंग में वरिंगत है। शक सं० ६६६ (वि० सं० ८३५) में लिखी कुवलयमाला में भी इसका उल्लेख है । इस ग्रंथ में जबालीपुर के राजा वत्मराज का भी उल्लेख है । इसी वत्सराज का उल्लेख जैन हरिवंश पुराण में भी है । यह ग्रंथ शक सं० ७०५ १० में पूर्ण हुआ था । इस ग्रन्थ के अनुसार उत्तर में इन्द्रायुद्ध दक्षिण में कृष्ण का पुत्र वल्लभ पूर्व में वत्सराज़ और पश्चिम में जयवराह राजा था। इन दोनों में ५-६ वर्ष का अन्तर है । इन वर्षों में वत्सराज जबालीपुर (जालोर) से मालवा पर अधिकार कर लिया प्रतीत होता है । राष्ट्रकूटराजा गोविन्द का जिसे यहां कृष्ण का पुत्र वल्लभ कहा है, बहुत थोडे लेखों में हो वर्णन है । उसके शासनकाल की तिथि इसी हरिवंशपुराण के आधार पर निश्चित की जाती है । दक्षिण भारत के श्रवणबेलगोला के एक लेख में अकलंक देव और राष्ट्रकूट राजा कृष्ण का उल्लेख है । इसी का वंशज अमोघवर्ष बडा प्रतापी राजा हुआ। इसके शासनकाल में दिगम्बर जैन सम्प्रदाय के कई ग्रन्थ लिखे गये। जिनसेन ११ इस का ६. जिन प्रथ सूरि के तीर्थ कल्प में इस प्रकार वर्णन है : तह गछ भिल्ल रज्जस्सच्छेयगो काल गायरिम्रो हो हो । तेंवरण उसएहि गुण सयकलियो सु प उत्ती । श्री मोहनलाल द० देसाई जैन साहित्य नो इति० पृ० ६६ ७. वही पृष्ट १३० ८. रूप्यमयं जहा भिल्लमाले वम्म लातो नि० चू० १०।२५५ ६. श्री मोहनलाल द० देसाई - जैन साहित्य नो इति० पृ० १७५/७६ श्री नाथूराम प्रेमी – जैन साहित्य का इतिहास पृ० ११५ Jain Education International १०. शाकेष्ववद शतेषु सत्यषु दिशं पंचोत्तरेषूत्तरां । पातीन्द्रायुधनाम्नि कृष्णनृपजे श्री वल्लभे दक्षिणां । पूर्वा श्री मदवन्ति भूभृति नृपे वत्सादि राजेऽपरां । सौराणांमधिमण्डलं जययुते वीरे वराहेऽयति ॥ ५२ ॥ श्री नाथूराम प्रेमी - जैन साहित्य का इतिहास पृ० ११६ पर दिया गया उदाहरण ११. पाश्वभ्युदय में उसने लिखा है कि " इत्यमोघवर्षं परमेश्वर परमगुरु श्री जिनमेनाचार्य विरचित मेघदूत वेष्टित" (ज० ष० बी० रा० ए० सी० भाग १८ पृ० २२४) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014041
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1964
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy