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________________ पुरानी है। श्रुतकेवली भद्रबाहु ने तो नियुक्तियों की रचना की ही, बाद में गोविन्दवाचक जैसे अन्य आचार्यों ने भी नियुक्तियां लिखीं। इस प्रकार समय के प्रवाह के साथ-साथ नियुक्ति-गाथाओं में भी क्रमशः वृद्धि होती गई। संभवतः द्वितीय भद्रबाहु ने अपने समय तक की समस्त उपलब्ध नियुक्ति-गाथाओं का संग्रह कर उन्हें अंतिम रूप दिया जो वर्तमान में उपलब्ध हैं। अतः वर्तमान में उपलब्ध नियुक्तियों के रचयिता द्वितीय भद्रबाहु ही माने जाने चाहिएं। परंतु प्रो० सागरमल जैन ने नियुक्तिकार के रूप में उपर्युक्त दोनों आचार्यों से भिन्न किसी तीसरे भद्रबाहु की कल्पना की है जो विचारणीय है। नियुक्तियों का रचनाकाल मूलतः नियुक्तियों का परिगणन व्याख्या-साहित्य में किया गया है। चूंकि प्रायः सभी नियुक्तियां किसी न किसी आगम-ग्रंथ के साथ सम्बद्ध हैं इसलिए यदि उनकी गणना आगम-ग्रंथों में की जाए तो उनकी रचना का प्रारंभ भी 5वीं शती में वल्लभी में हुई आगम-वाचना से पूर्व ही स्वीकार करना पड़ेगा। प्रमुख नैयायिक द्वादशारनय के रचयिता आचार्य मल्लवादी द्वारा अपनी कृति में नियुक्ति-गाथा को उद्धृत करना इस बात को प्रमाणित करता है कि नियुक्तियों की रचना मल्लवादी से पूर्व हो चुकी थी। मल्लवादी का समय विक्रम की 5वीं शती माना जाता है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि आगम-व्याख्या के रूप में नियुक्तियों की रचना बहुत पुरानी है। प्राचीन नियुक्तियों का समय वीर निर्वाण संवत् 162 से 170 के बीच का माना जा सकता है जबकि उपलब्ध नियुक्तियों का समय विक्रम की छठी शताब्दी ही मानना उचित है क्योंकि यही समय द्वितीय भद्रबाहु का है। उपसंहार संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि यद्यपि नियुक्तियों में आगम के सभी सूत्रों की व्याख्या नहीं की गई और न ही ग्रंथ के प्रत्येक शब्द या प्रत्येक वाक्य की व्याख्या की गई तथापि जिस निक्षेप-पद्धति के द्वारा संक्षिप्त एवं सांकेतिक शैली में उदाहरणों, दृष्टांतों एवं कथानकों के माध्यम से पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या की गई है वह जैन आगमिक व्याख्या-साहित्य में ही नहीं, अपितु संपूर्ण भारतीय साहित्य में महत्वपूर्ण है। शब्दों की व्याख्या करते समय एक शब्द के विविध संभावित अर्थों का ज्ञान कराते हुए उनके जितने भी एकार्थ या पर्यायवाची शब्द नियुक्तियों में उल्लिखित हैं उनसे प्राकृत व संस्कृत भाषा का एक उत्तम कोश तैयार किया जा सकता है। इनमें जैनों के परंपरागत आचार-विचार, तत्त्व-ज्ञान, पौराणिक कथाओं तथा ऐतिहासिक घटनाओं का भी पर्याप्त विवेचन हुआ है। अतः भाषा की दृष्टि से तो नियुक्तियां ज्ञानवर्धक हैं ही, जैन संस्कृति के अध्ययन की दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। परंतु खेद का विषय है कि आगमों के मूल स्वरूप के अस्त-व्यस्त होने तथा अनुयोग ( सूत्र का अर्थ के अनुरूप संयोग) के विषयानुरूप पृथक्-पृथक् होने के कारण नियुक्तियों का मूल स्वरूप भी नष्ट हो गया है। आज. जो नियुक्तियां उपलब्ध हैं उनमें काफी परिवर्तन आ चुका है। वर्तमान स्थिति यह है कि न उनका मौलिक स्वरूप पहचाना जा सकता है और न ही उनका परिमाण निश्चित किया जा सकता है क्योंकि कुछ नियुक्तियां भाष्यों में मिश्रित हो चुकी हैं। अतः उनके संपादन और अनुवादकार्य की महती आवश्यकता है। 1. 2. 3. 4. पाद-टिप्पण क) दशवैकालिक चूर्णि (जिनदासमहत्तरगणि) पृ० 1 ख) दशवैकालिक सूत्र, बृहद बृत्ति (हरिभद्र) पृष्ठ 1. प्राचीन भारतीय इतिहास का वैदिक युग, सत्यकेतु विद्यालंकार, पृ० 52 पालि भाषा और साहित्य, इन्द्र चन्द्र शास्त्री, वक्तव्य, पृ० 8-9 प्राकृत साहित्य का इतिहास, डा० जगदीश चन्द्र शास्त्री, पृ० 175 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014040
Book TitleWorld Jain Conference 1995 6th Conference
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain
PublisherAhimsa International
Publication Year1995
Total Pages257
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size23 MB
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