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कारक, भेद और पर्यायवाची शब्दों द्वारा शब्द की व्याख्या करने या अर्थ प्रकट करने को निरुक्ति या नियुक्ति की संज्ञा दी है। इस लक्षण में उन्होंने निरुक्ति और नियुक्ति को समानांतर माना है। परंतु वास्तविकता यह है कि निरुक्त या निरुक्ति शब्द नियुक्ति से नितांत भिन्न हैं। यास्क कृत निरुक्त एवं भद्रबाहु कृत नियुक्तियों में भिन्नता ___ जिस प्रकार वेद के पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या करने के लिए महर्षि यास्क ने निघंटु के भाष्य रूप में निरुक्त की रचना की थी उसी प्रकार जैनागमों के पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या करने के लिए आचार्य भद्रबाहु ने नियुक्तियों की रचना की। यहां यह स्मरणीय है कि यास्क के निरुक्त में एक शब्द के अनेक अर्थ देकर युक्ति के द्वारा उनकी व्युत्पत्ति को सिद्ध किया गया है। यथा- 'गच्छतीति गो', यह 'गो' पद का निर्वचन है। चूंकि चलना गाय के लिए अनिवार्य है सबके (भिन्न-भिन्न अर्थवाची गो पदों के लिए नहीं, इसलिए यह निर्वचन 'गो'-गाय के लिए उपयुक्त है। इसी प्रकार 'उनत्तीति उदकः' अर्थात् जो गीला करता है वह उदक (जल) है। चूंकि गीला करना जल का स्वभाव है, अतः जल की 'उदक' संज्ञा उचित है। इसी प्रकार की युक्तियों के आधार पर यास्क ने निरुक्त में एक शब्द के अनेक अर्थों की व्याख्या की है। संक्षेप में निरुक्त के निर्वचन किसी न किसी युक्ति पर आधारित हैं। यद्यपि यास्क ने युक्तियों के आधार पर जो शब्दों के निर्वचन दिए हैं उनका युक्तियों के द्वारा ही खंडन नहीं किया जा सकता, तथापि कुछ ऐसे शब्द भी होते हैं जिनका युक्तियों के आधार पर भी अर्थ करना संभव नहीं होता। यथा-घटयतीति घटः। 'घट' के इस निर्वचन के आधार पर जिसे घड़ा जाता है अर्थात् आकार दिया जाता है वह घट है। परंतु घट का यह निर्वचन उचित नहीं है क्योंकि घट मिट्टी के अवयवों से बनता है, तंतुओं से नहीं। तंतुओं से तो पट बनता है। मिट्टी से घट और तंतुओं से पट का बनना यह सिद्ध करता है कि प्रत्येक वस्तु में कार्य-कारणभाव विद्यमान रहता है। जब किसी वस्तु में कार्यकारणभाव होगा तब उसे युक्ति के द्वारा सिद्ध करना भी असंभव होगा। दूसरे, कुछ शब्द ऐसे भी होते है जो प्राचीन ऋषियों द्वारा उनके विलक्षण अनुभवों के आधार पर पारिभाषित होते हैं। उन पारिभाषिक शब्दों के लिए कोई युक्ति नहीं दी जा सकती। संभव है कि इस तथ्य को आचार्य भद्रवाहु ने अनुभव किया हो और शब्दों के सही अर्थ को जानने के लिए युक्तिवाद के विरोध में नियुक्तियों की रचना की हो। यास्क के 'निरुक्त' और भद्रबाहु कृत नियुक्तियों में जो मूलभूत भिन्नता दिखाई देती है वह यह है कि यास्क का निरुक्त व्युत्पत्तिशास्त्र है जबकि भद्रबाहु कृत नियुक्तियाँ व्याख्या-ग्रंथ की कोटि में परिगणित हैं। नियुक्तियों का स्वरूप एवं भाषाशैली
जैनसाहित्य में नियुक्तियों की गणना व्याख्याग्रंथ के रूप में की गई है, परंतु नियुक्तियों का स्वरूप अन्य व्याख्याग्रंथों के स्वरूप से नितांत भिन्न है। अधिकांशः व्याख्याएं गद्यबद्ध होती हैं और उनमें मूल ग्रंथ की ही व्याख्या की जाती है जबकि नियुक्ति-ग्रंथ पद्यबद्ध हैं। यही नहीं, इनमें न तो मूल ग्रंथ की ही व्याख्या की गई है और न ही मूल-ग्रंथ की व्याख्या में सहायक सामग्री ही जुटाई गई है। अपितु पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या के रूप में आगमिक विषयों के सविस्तार व्याख्यान हेतु सहायक सामग्री का संकलन अवश्य किया गया है। इसलिए कुछ पाश्चात्य विद्वान उन्हें व्याख्याग्रन्थ मानने में संदेह व्यक्त करते हैं।
नियुक्तियों की भाषा अर्धमागधी और महाराष्ट्री प्राकृत का मिश्रण है। ये अत्यंत संक्षेप में आशुलिपि के समान सांकेतिक शैली में आर्या छंद में लिखी गई हैं। अत्यंत संक्षिप्त एवं सांकेतिक शैली में रचित होने के कारण उन्हें बिना व्याख्या के भली प्रकार समझना कठिन प्रतीत होता है। यद्यपि विवेच्य विषयों को समझाने के लिए स्थान-स्थान पर अनेक उदाहरणों, दृष्टांतों तथा कथानकों का उल्लेख किया गया है, तथापि जिस विधि से उनका संकेत किया गया है, उससे उनका स्पष्ट और विशद ज्ञान तो नहीं होता, परंतु उन्हें उस रूप में कण्ठस्थ करने से आगमों के मूल स्वरूप
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