SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 243
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (15) दोनों के ही संघों में अरिहन्त विद्यमान थे। (16) पार्श्वनाथ प्रागार्य अनार्य इक्ष्वाकु वंश के थे। व्रात्य भी प्रागार्य अनार्य थे। दोनों के ही संघों में वज्जी, मल्ल, काशी, कोशल, लिच्छवी, मागध, नाग, व्रात्य एवं पार्श्वनाथ सम्मिलित थे। (17) पार्श्वनाथ और एकव्रात्य आत्ममार्गी तापस थे और दोनों ने सिद्धि प्राप्त की। (18) वैदिक और याज्ञिक ब्राह्मण पार्श्वनाथ और एकव्रात्य दोनों से ही घृणा करते थे तथा दोनों को ही उनकी यातनाएं सहनी पड़ी। (19) एकव्रात्य और पार्श्वनाथ दोनों ही नवीं-आठवीं शती ईसा पर्व में हए थे। (20) पार्श्वनाथ के संघ में दिगंबर साधु विद्यमान थे। एकत्रात्य भी ऋग्वैदिक शिश्नदेवों की परंपरा के थे। दोनों ही अनार्य शिश्नदेव परंपरा के थे। (21) पार्श्वनाथ अर्हन्तों के तीर्थंकर थे। एकव्रात्य व्रात्यों के सर्वोपरि मार्गदृष्टा थे। दोनों के ही संघों में आत्ममार्गी श्रमण विद्यमान थे। इस प्रकार, पार्श्वनाथ और अथर्ववेद के व्रात्यकांडोक्त व्रात्यों के सर्वोपरि आराध्य एकव्रात्य दोनों अभिन्न और एक ही प्रतीत होते हैं। संदर्भ सूची 1. ऋग्वेद 7.2.4.5. 2. ऋग्वेद 10.8.9.3. 3. एच.एम.जानसन। 4. ऐतरेय ब्राह्मण-7.18. 5. सिलविन लैवी-Pre-Aryan and Pre-Dravidian in India, 1910; page 85. 6. सिलविन लैवी यथोक्त। 7. एच.एम. जानसन-यथोक्त। 8. उत्तराध्ययन सूत्र-23. 1 से 88. 9. सुखलाल संघवी—चार तीर्थंकर (हिन्दी), 1953, पृष्ठ 139-141. 10. (1) ति. पण्णत्ति-1.9.76, 5.9.226, 9.32.378-379. (2)सूयगडांग--2.7.4. से 40 11. विजयेन्द्रसूरि। 12. एस.सी. रायचौधरी-Political History of Ancient India; 1950; page 97. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014040
Book TitleWorld Jain Conference 1995 6th Conference
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain
PublisherAhimsa International
Publication Year1995
Total Pages257
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy