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सहिष्णुता और जैन धर्म
डॉ. निजामुद्दीन
"संयुक्त राष्ट्र संघ ने सन् 1995 का वर्ष 'सहिष्णुता का वर्ष ( इयर ऑफ़ टॉलरेंस) घोषित करते हुए कहा कि विश्व-शांति के लिए दूसरों की क्रिया, विश्वास तथा मतों को सहन करना चाहिए । जातीय संघर्ष के पुनरुत्थान, अल्पसंख्यक के प्रति भेदभाव, राजनीतिक शरण लेने वालों और शरणार्थियों के प्रति घृणा को समाप्त करने के लिए सहिष्णुता ही एकमात्र मार्ग है, ऐसी घोषणा यूनेस्कों ने की है। इसका मानना है कि जातीय और धार्मिक अनुदारता ने अनेक देशों में भेदभाव एवं अभित्रास के अनेक रूप प्रस्तुत किये हैं, उन देशों के प्रति जो विभिन्न मत रखते हैं। हिंसा तथा संत्रास उनके विरुद्ध भी हैं जो लेखक हैं, पत्रकार हैं और वे भी जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्षधर हैं। यह हिंसा, आतंक और राजनीतिक गतिविधियों के साथ बढ़ता ही रहता है और किसी एक वर्ग को सामाजिक रोगों विकारों जैसे अपराध, बेरोजगारी का उत्तरदायी ठहराया जाता है ।
"21वीं सदी के द्वार पर दस्तक देते हुए हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती असहिष्णुता या अनुदारता की है। असहिष्णुता जातीय समस्या के साथ-साथ राजनीतिक समस्या भी है। व्यक्तियों और संस्कृतियों के भेद की अस्वीकृति ही असहिष्णुता है। असहिष्णुता जब संगठित या संस्थागत हो जाती है तो यह लोकतांत्रिक मूल्यों को नष्ट कर विश्व शांति के लिए खतरा हो जाती है। " ( द हिस्दुस्तान टाइम्स, 1 जनवरी 1995 ) संयुक्त राष्ट्र संघ की घोषणाएं कागजों पर बहुत अच्छी लगती हैं, उसके कार्यालय पर सभा में सदस्य भाषण भी लुभावने देते हैं लेकिन ये घोषणाएं, ये भाषण बहुधा शाब्दिक छलावा बनकर रह जाते हैं। उनसे हासिल कुछ भी नहीं होता । मृगतृष्णा से अधिक वे क्या दे पाते हैं ? सब्ज-बाग़ दिखाना सदा अच्छा नहीं होता । यथार्थ से आंखें चार करने का साहस भी जुटाना चाहिए। हम आज 'सहिष्णुता वर्ष' नहीं 'असहिष्णुता वर्ष मना रहे हैं, यह हकीक़त । आप भी जरा ठहर कर देखिए — सहिष्णुता कितनी है, असहिष्णुता कितनी है ?
'सहिष्णुता' क्या है ? सहिष्णुता का अर्थ है सहन करना, यानी सहनशीलता । आप दूसरों से अच्छे-बुरे शब्द सुनकर चुप रहते हैं, कोई अपशब्द कहे, अपमानित करे फिर भी चुप रहते हैं । उत्तेजित, उद्विग्र, क्रोधित नहीं होते । आक्रोश नहीं करते, आवेश में नहीं आते, तभी कहा जाएगा कि आप सहन-शक्ति रखते हैं, आप सहनशील है, सहिष्णु हैं। जरा-सी अनुचित बात सुनकर एकदम से भड़क उठना, उत्तेजित होना भले मनुष्य को शोभा नहीं देता । सदा दुर्वासा बने रहना अशोभनीय है। एक बार हजरत अली (चौथे खलीफा ) युद्ध में अपने शत्रु पर चढ़ बैठे, शत्रु उनके मुंह पर थूक दिया। तुरन्त हजरत अली आपे से बाहर हो गये और क्रोधावेश में तलवार चलाने वाले ही थे कि एकदम से हाथ रोक लिया, “अब मैं तुझे नहीं मारूंगा, यह तो प्रतिकार होगा। यह व्यक्तिगत द्वेष होगा, पहले धर्म- युद्ध के लिए लड़ रहा था।" हज़रत अली का यह अभयदान, क्षमादान उनकी सहिष्णुता का उदाहरण है।
हज़रत मोहम्मद को मक्का वालों ने कम नहीं सताया। बहुत प्रताड़ित किया, बड़ी यातनाएं दीं। उन पर ईंट-पत्थर बरसाये गये, यहां तक कि एक बार उनकी जूतियां भी रक्त से भर गई, लेकिन उस करुणा के सागर ने उफ़ तक नहीं किया। उनको बुरा-भला तक नहीं कहा, बल्कि उनके इस अपराध को यह कहकर क्षमा कर दिया- 'यह लोग गुमराह हैं, समझते नहीं हैं । '
सहिष्णुता का ऐसा ही ज्वलंत उदाहरण महावीर स्वामी के जीवन की घटनाओं में देखा जा सकता है। उन पर भी ईट-पत्थर बरसाये गये, उनके ऊपर कुत्ते छोड़े गये । उन्हें नगर गांव में ही नहीं, पास तक न ठहरने दिया गया ।
सुनसान जंगल में ठहरते। एक बार तो एक ग्वाले ने उनके कानों में कील तक ठोक दी, क्योंकि वह ग्वाले को उसके खो गए बैलों का पता न बता सके। बताते भी कैसे, मौनव्रत जो साध रखा था। लेकिन यहां उनकी सहिष्णुता पर ध्यान दीजिए। और ऐसी ही सहिष्णुता का बिम्ब देखिए हजरत ईसा के व्यक्तित्व में । कैसी घोर
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