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________________ श्रावक - धर्म, संस्कार-निर्माण और नारी ( स्व० ) डॉ० श्रीमती शान्ता भानावत श्रावक शब्द 'श्रा', 'व', 'क' इन तीन अक्षरों से मिलकर बना है। ये तीनों अक्षर तीन अर्थ देते हैं। 'श्री' से तात्पर्य है श्रद्धावान् होना, 'व' से विवेकवान् होना और 'क' से क्रियावान् होना। जैन दृष्टि से वही व्यक्ति श्रावक कहलाता है जिसमें ये तीनों गुण विद्यमान हों। श्रावक वही है जो संकल्पों के साथ दुर्गुणों को छोड़ दे। बुराइयों से बचे । जो मर्यादा में रहकर, प्रपंचों से बचकर अपने गुणों, आचरणों, व्यवहारों और मंगलमय भावों से सभी का कल्याण चाहे । श्रावक त्याग और भोग दोनों को समन्वयात्मक दृष्टि में रखकर आध्यात्मिक विकास में आगे बढ़ता है। श्रावक न सिर्फ अपने आत्मगुणों को विकसित करता है वरन् उसे अपने परिवार, गांव, नगर, राष्ट्र और समाज के अभ्युत्थान की भी चिंता रहती है । पारिवारिक, आध्यात्मिक एवं सामाजिक जीवन के विकास में श्रावक-धर्म की भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण है। यहां तक कि श्रमण-धर्म की भूमिका की नींव भी श्रावक-धर्म पर ही मजबूत बनती है। श्रावक यदि कहीं गलती करता है, धर्म - श्रद्धा में अस्थिर होता है या धर्म से उदासीन होता है तो उसे जागृत करना श्रमण-वर्ग का कर्तव्य है । इसी प्रकार श्रावकवर्ग का कर्तव्य है कि वह साधु-साध्वी वर्ग पर देखरेख रखे । यदि श्रमण वर्ग अपने आचार-विचार से, साधु-मर्यादा का पालन नहीं करता है तो वे आचार्य को निवेदन कर साधु-साध्वी को श्रावक संघ से बाहर भी कर सकते हैं। साधु-साध्वी श्रावक-श्राविका से बने धर्म-संघ में श्रावक-श्राविका का स्थान बहुत ही महत्वपूर्ण है। भगवान महावीर ने श्रावकों के लिए यह विधान किया है कि वे श्रमण-वर्ग को अपना गुरु समझ कर विनय-भक्ति एवं सेवा सुश्रुषा करें। दूसरी तरफ भगवान ने श्रमण-वर्ग के लिए यह विधान किया है कि वे श्रावक को "अम्मा प्रिया" के समान समझें। उदाहरणार्थ —– परदेशी जैसे नास्तिक, क्रूर, अधर्मपरायण, द्वेषी राजा को समझाने का श्रेय केशी स्वामी को है । परन्तु इस कार्य में सुश्रावक चित्त की सहायता किसी तरह कम महत्वपूर्ण नहीं है । चित्त श्रावक की सहायता के बिना राजा प्रदेशी को प्रतिबोध देना अत्यंत दुष्कर था क्योंकि वह मुनियों के सम्पर्क में नहीं आता था। अतः चित्त श्रावक अपनी बुद्धि से प्रदेशी को प्रेरित कर केशी स्वामी के पास ले गया । केशी स्वामी से प्रतिबोध प्राप्त कर राजा प्रदेशी प्रबुद्ध हो गया और अधर्म से हट गया । जैन समाज की रीढ़ श्रावक-धर्म है। श्रावक की व्यक्तिगत साधना ही समाज के उत्कर्ष का कारण होती है । इसलिए श्रावक अपने समाज की प्रगति अथवा अभ्युत्थान करने में बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान रखता है। आज संसार में भौतिकवाद का बोलबाला है। आत्मवाद को भौतिकवाद ने ढक लिया है । शान्ति को चिन्ता, ईर्ष्या, मत्सर, क्रोध आदि भावों ने घेर लिया है। व्यक्ति-व्यक्ति में अविश्वास की भावना बढ़ रही है। घर- समाज में व्यक्ति एक दूसरे को संदिग्ध अवस्था में देख रहा है। अपने आत्म-विश्वास एवं सामर्थ्य की कमी के कारण व्यक्ति न तो व्यवहार में आगे बढ़ पाता है न आत्म-विकास में । आचार में शिथिलता और व्यवहार में कलुषता के कारण द्वेषानि भड़क रही है। इस दृष्टि से समाज के निर्माता व्यक्तियों के संस्कार - निर्माण का दायित्व उन श्रावक-श्राविकाओं के हाथों में है जो अपना आचार-व्यवहार शुद्ध रख कर समाज को आत्मोन्नति की ओर प्रेरित करते हैं । गृहस्थाश्रम जीवन का नन्दन वन है। अनुभवी नीतिकारों ने सुख की गणना करते हुए स्वास्थ्य को प्रथम स्थान और 'कुटुम्ब को सुख का दूसरा स्थान दिया गया है। कुटुम्ब जनों के सहयोग से गृहस्थ जीवन में अनेक कार्य सम्पादित होते हैं। विशाल अट्टालिकाएं, गगनचुम्बी महल, अपार धन-सम्पत्ति कुटुम्ब जनों के अभाव में व्यर्थ है । कुटुम्ब - जन दुख में हिस्सा बटाने वाले और सुख-शान्ति में वृद्धि करने वाले होते हैं । स्वार्थ त्याग, अनुशासन और कर्तव्यपालन द्वारा ही पारिवारिक जीवन में सुख-शांति का संचार हो सकता है। श्रीकृष्ण की पटरानी सत्यभामा जब बन नें पाण्डव - पत्नी द्रौपदी से मिली तो वह निर्वासित परिवार को पहले की तरह ही सुखी एवं संतुष्ट देखकर चकित रह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014040
Book TitleWorld Jain Conference 1995 6th Conference
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain
PublisherAhimsa International
Publication Year1995
Total Pages257
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size23 MB
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