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वैष्णव-परंपरा का जो पशु-हिंसा की अपेक्षा पशुपालन और मांसाहार की अपेक्षा शाकाहार पर इतना अधिक बल देता था कि आज बोलचाल की भाषा में वैष्णव-भोजन शाकाहर का पर्यायवाची बन गया है। पंजतलि के योग-सूत्र में यमों में अहिंसा का विवेचन करते समय जैन-परंपरा का प्रभाव प्रत्यक्ष दिखाई देता है। वहां किसी भी स्थिति में हिसा की छूट न देने को महाव्रत कहा गया है। किन्हीं विशेष परिस्थितियों में हिंसा की छूट रखना हमारी कमजोरी हो सकती है, किंतु धर्म नहीं। यह विवेचन सर्वथा जैन-धर्म के अनुकूल है। यह मानना होगा कि जैन-धर्म के अहिंसा के सिद्धांत ने अंततोगत्वा वैदिक-परंपरा के साहित्य में एक ऐसा महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर लिया कि आज की सामासिक भारतीय संस्कृति की कल्पना भी अहिंसा के बिना नहीं की जा सकती। तथापि यह मानना भी भ्रांतिपूर्ण है कि अहिंसा भारतीय जन-जीवन का कोई अंग बन गई है। स्वयं जैन समाज ही जैन परंपराभिमत अहिंसा की आवश्यक शर्त अपरिग्रह का पालन करने में असमर्थ रहा है फिर अजैन समाज में तो अहिंसा के व्यवहार में आने का प्रश्न ही कहां उठता है ? इतना अवश्य है कि वैदिक-परंपरा में भी शंकर, गांधी और विनोबा जैसे कुछ मनीषी परिग्रहानुप्राणित अहिंसा के प्रति उतने ही समर्पित रहे जितने कुन्द-कुन्द, हरिभद्र अथवा श्रीमद् रायचन्द्र जैसे जैन-मनीषी और इन अंशों में श्रमण-परंपरा ने वैदिक-साहित्य को प्रभावित किया है।
जैन दर्शन का एके महत्वपूर्ण सूत्र है—समता। समता का अर्थ है—सुख-दुख, हानि-लाभ, मान-अपमान में समानता का भाव रखना। यह एक ऐसा व्यावहारिक सिद्धांत है जो पूरे भारतीय वाङ्मय में प्रतिबिंबित हुआ। इस समानता का मुख्य आधार है-वीतरागता। इन्द्रियों के अनुकूल विषयों की प्राप्ति होने पर प्रसन्नता का भाल समता भाव का विरोधी है।
वेद-साहित्य को छोड़कर उपनिषद् के बाद के सभी साहित्य में वैराग्य की चर्चा की गई है। किंतु वैदिक-साहित्य में वैराग्य के अनेक आदर्श हैं। राजर्षि जनक राज्य करते हुए भी विरक्त हैं और विदेह-मुक्त कहलाते हैं। उपनिषद् के अनेक ऋषि सोने से मंढे हुए सीगों वाली गायों को पाकर प्रसन्न होते हैं यद्यपि वे ब्रह्मज्ञानी हैं। कठोपनिषद् में नचिकेता सांसारिक सुख-वैभव के प्रति वैराग्य प्रदर्शित करता है, किंतु फिर भी वह एक वाक्य में ऐसा तथ्य उद्घोषित कर देता है जो उसके वैराग्य को श्रमण-परंपरा के वैराग्य से भिन्न करता है। वह यमराज से कहता है-लप्स्यामहे वित्त-भद्राक्ष्म चेत्वा। यह वाक्य नचिकेता के मन की परिग्रह-संज्ञा को ही अभिव्यक्त करता है। फिर भी इसमें संदेह नहीं उपनिषदों में वैराग्य की भावना का खूब विकास हुआ।
ऐसा समझा जाता है कि महात्मा गांधी की जीवन दृष्टि पर श्रमण-परंपरा का बहुत प्रभाव है किंतु जिस प्रकार तपस्या अथवा वैराग्य के मूल्य को वैदिक-परंपरा ने अपने ही रंग में ढाल कर अपनाया उसी प्रकार महात्मा गांधी ने अहिंसा का उपयोग भी जिस ढंग से किया वह जैन परंपरा के लिए अपरिचित है। गांधी जी के अहिंसा के कुछ प्रयोग नमक सत्याग्रह जैसी घटनाओं में निहित हैं। वहां सत्ता के अनुचित आदेश के विरुद्ध अहिंसात्मक ढंग से कार्यवाही की गई है। इसी प्रकार हरिजनों के मंदिर-प्रवेश के प्रश्न को लेकर या नोआखली के सांप्रदायिक दंगों को लेकर महात्मा गांधी का आमरण अनशन करना एक अभिनव प्रयोग है। उन प्रयोगों में महात्मा गांधी ने अन्याय के विरुद्ध अहिंसा का प्रयोग एक शस्त्र के रूप में किया है। अहिंसा का ऐसा उपयोग श्रमण-परंपरा में महात्मा गांधी के पहिले भी नहीं हुआ था, और महात्मा गांधी के बाद भी नहीं हुआ। जैन परंपरा इतनी अहिंसक है कि वह किसी अनैतिक कार्य करने वाले को नैतिक दबाव डालकर भी नहीं रोकना चाहती। किंतु महात्मा गांधी ने अहिंसा का उपयोग नैतिक दबाव के रूप में करने का नया मार्ग प्रशस्त किया।
अहिंसा, समता, वैराग्य, अपरिग्रह आदि शब्दों का प्रयोग यद्यपि वैदिक तथा श्रमण जैन साहित्य में समान रूप से हुआ किंतु इन शब्दों का तात्पर्य दोनों परंपराओं में सर्वत्र एक सा नहीं है। योगसूत्र जैसे ग्रंथ अवश्य इसके अपवाद हैं जहां अहिंसा की अवधारणा वही है जो जैन परंपरा में है।
आचार्य एवं अध्यक्ष, संस्कृत विभाग, जोधपुर विश्वविद्यालय
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