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अहिंसा सार्वभौम
डा. रामजी सिंह
मानव जाति का धर्म भले ही सभ्य समाज का संगठन और अहिंसा हो लेकिन, विश्व में हिंसा की चिंगारियां दीख रही हैं और युद्ध तथा आतंकवाद की काली छाया भी विद्यमान है। किन्तु विश्व मानवीय घृणा एवं हिंसा के मारे थक चुका है। शस्त्र से सुसज्जित जैसे राष्ट्र आज युद्ध रोकने के लिए सचेष्ट हो रहे हैं, परमाणु अप्रसार नीति चाहे कितनी भी अन्यायपूर्ण और भेदभाव से भरी हुई हो, नियति का यह व्यंग्य है कि इसका प्रस्ताव विश्व के सर्वाधिक युद्धक राष्ट्रों से आ रहा है । लगता है कि युद्ध का गति तत्व समाप्त हो चुका है। उसी प्रकार आतंकवाद के बढ़ते चरण भी थकने लगे हैं। सम्पूर्ण विश्व में आतंकवाद के विरुद्ध जो एक वातावरण बन रहा है, वह इसका जीवंत प्रमाण है।
युद्ध और हिंसा की परिणति विशुद्ध और सरल तानाशाही में होती है और जहां अहिंसा है, वहीं समस्त जनतंत्र जीवित रह सकता है और वहीं मानवाधिकार की प्रासांगितकता है। आज यदि यूरोप को जनतंत्र एवं मानवाधिकार की चिंता हैं तो हमें भी अहिंसा का जीवन-दर्शन जीना होगा। हिंसक क्रान्ति और शस्त्र-तंत्र पर आधारित साम्यवादी सोवियत संघ जब तक रहा वहां तानाशाही कायम रही। असल में हिंसा के साथ लोकतंत्र चल ही नहीं सकता ।
अहिंसा एक नैतिक और आध्यात्मिक शक्ति के रूप में हजारों वर्षों से चली आ रही थी, लेकिन महावीर और बुद्ध, ईशु मसीह या सुकरात सबों के लिए अहिंसा व्यक्तिगत धर्म था इसलिए वह सामाजिक शक्ति के रूप में प्रकट नहीं हो सकी थी। महात्मा गांधी ने अहिंसा को एक विश्व-शक्ति के रूप में केवल प्रोत्साहित ही नहीं किया, उसका सफल प्रयोग करके भी दिखाया। गांधी के पहले अहिंसा को लोग एक अच्छी चीज मानते थे इसलिए हिंसा का धनुर्वेद बना। आज भी सैन्य विज्ञान हमारे विश्वविद्यालयों का शोध का विषय है। आज अहिंसा और शान्ति शोध समाज में एक उपेक्षित शास्त्र के रूप में हैं ।
हमने मान लिया था कि अहिंसा महर्षि, संत-महात्माओं के लिए है। यह व्यावहारिक जीवन की चीज नहीं है । गांधी ने यह सिद्ध कर दिया कि अहिंसा हमारे जन-जीवन और व्यावहारिक जीवन लिए केवल उपयोगी ही नहीं, अनिवार्य भी है। उन्होंने यह भी सिद्ध किया कि अहिंसा की शक्ति का प्रयोग नर या नारी, बच्चे और बूढ़े सभी कर सकते हैं, बशर्ते कि उनके हृदय में सम्पूर्ण मानवता के लिए करुणा और प्रेम हो। साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि हिंसा से परे अहिंसा केवल श्रेष्ठ जीवन मूल्य ही नहीं, अधिक प्रभावकारी भी है।
यह कहा जा सकता है कि हिंसा के द्वारा भी समाज परिवर्तन और अन्याय के निराकरण के लिए अनेकों उदाहरण हैं लेकिन हिंसा-शक्ति की सफलता के चाहे जितने काव्य हों, शायद उसकी असफलता के भी कम से कम उतने ही महाकाव्य होंगे। हिंसा को फैलाकर समाज थक चुका है। वह अन्याय का प्रतिकार तो चाहता है लेकिन हिंसा का भी कोई नैतिक विकल्प ढूंढ रहा है। गांधीजी का सत्याग्रह हिंसा का एक सशक्त नैतिक विकल्प है और उसकी सफलता हमारे विभिन्न शान्तिवादियों ने करके दिखायी है जिनमें मार्टिन लूथर किंग, ऑबेवियर, डोलची, फॅयूजी गुरुजी वैलेसा आदि हैं।
अहिंसा हिंसा का अभाव ही नहीं है। अहिंसा केवल शस्त्र के परित्याग को नहीं कहते हैं। अहिंसा तो जीवन की एक सर्वांगीण साधना है। अहिंसा यदि सार्वभौम नहीं है तो यह अहिंसा नहीं इसलिए चाहे वह राजीनीति का क्षेत्र हो या अर्थ-नीति का, शिक्षा - तन्त्र हो या सामाजिक तंत्र । प्रत्येक क्षेत्र में अहिंसक जीवन-शैली को समझना ही अहिंसा की सफलता को सिद्ध करेगा। आज की सामाजिक संरचना में हिंसा व्याप्त । ऐसी स्थिति अहिंसा का
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