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अहिंसा का अर्थशास्त्र
डॉ. नेमीचन्द जैन
अहिंसा का अर्थशास्त्र तीन प्रमुख प्रवृत्तियों पर अवस्थित है; ये हैं—स्वावलम्बन, अपरिग्रह, विकेन्द्रीकरण | जहां पराधीनता, परिग्रह और केन्द्रीकरण हैं वहां दमन, दोहन, और हिंसा अपरिहार्यतः हैं । इस संदर्भ में गुजराती भाषा एक पुस्तक प्रकाशित हुई है— 'सुंदर दुनिया माटे सुंदर संघर्ष का ( 1993 श्रीमती नंदिनी जोशी) । इस पुस्तक के अध्याय 34 और 35 अहिंसा के अर्थतन्त्र को बड़ी स्पष्टता से प्रतिपादित / परिभाषित करते हैं। इन अध्यायों में प्रो. काओरू यामागुची, जापान के ग्राम - अर्थतन्त्र (म्युराटोपिअन अर्थतन्त्र ) की चर्चा की गयी है और कहा गया है कि यही एक ऐसा अर्थतन्त्र है जो हमारी आगामी समाज रचना का सबल आधार बन सकता है। हो सकता है कि कुछ लोगों को यह रूढ़ और पारम्परिक दीख पड़े; किन्तु जब तक मनुष्य इस ओर वापस नहीं होगा, उसके बीच के फासले बढ़ेंगे और परिग्रह तथा पूंजी का अजगर उसे आमूलचूल निगल जाएगा। जो भारत हिंसा और परिग्रह के जहर से अब तक बचा हुआ था, आज वही उदारीकरण की फांसी के फंदे में लटका जीवन-मरण का संघर्ष कर रहा है। दुर्भाग्य से बहुराष्ट्रीय कंपनियों के नाम पर देश का जो बचाखुचा ग्रामतन्त्र था वह भी सर्वनाश की ओर कूच कर गया है।
ऐसे भयावह क्षणों में यदि हमने हक़ और हकीकत की ओर से अपनी आंखें मूंदी तो वह आदमी जो पूंजी का मालिक था, उसका एक संपूर्ण गुलाम बन जाएगा ।
आज जगत्वर्ती ग्राम (ग्लोबल विलेज) की बात तो की जाती है किन्तु इस बात के पीछे कपट का एक भ्रम- जाल बिछा हुआ है। यहां ग्लोबल विलेज का मतलब पूरी दुनिया को एक ग्राम के रूप में विकसित करने का है यानी सूचना-युग (इन्फारमेशन एज) की तीव्रता का अड्डा बनाना है अर्थात् यह कहना है कि दुनिया इतनी सूचना-पराधीन हो जाएगी कि जैसे कोई बात गांव में जंगल की आग की तरह फैलती है, वैसे दुनिया में वह फैल जाएगी। गांव सूचनाओं से कराहने लगेगा। वह दलाल स्ट्रीट बन जाएगा। यह कल्पना या स्वप्न नहीं बल्कि एक भयानक दुःस्वप्न है, जो मनुष्य के अस्तित्व और उसकी अस्मिता के लिए प्रलयंकारी सिद्ध होगा । इससे दुनिया छोटी नहीं होगी और न ही लोग एक पड़ोसी की तरह एक-दूसरे से प्यार और एक दूसरे पर भरोसा करेंगे; बल्कि पास होकर भी वे एक-दूसरे से कोसों दूर पड़ जाएंगे ।
मानिए; हिंसा, सत्ता और पूंजी पर खड़ा यह अर्थतन्त्र मनुष्य और मनुष्य तथा मनुष्य एवं प्रकृति के बीच ऐसे फासले खड़े कर रहा है, जिन्हें कभी भी पाटना संभव नहीं होगा। आज मनुष्य ने प्रकृति को पूंजी कमाने का साधन बना लिया है, अतः वह उसके अधिकतम शोषण में लग गया है। अधिकतम के मकड़जाल में फंसा आदमी अब सब ओर से विनाश के खौफनाक शिकंजे का दबाव महसूस करने लगा है। उसके हांथ-पांव एक ऐसे आर्थिक जाल में फंस गये हैं, जिससे उभरना असंभव जैसा हो गया है।
ऐसे में 'ग्लोबल विलेज' का मतलब यदि हम वही लेते हैं जो ऊपर दिया गया है तो मनुष्य को एक अभिशप्त भविष्य की ओर ले जाते हैं और यदि उसका अर्थ हम यह करते हैं कि जो कुछ जगत् में है वह उसके हर गांव में हो तो हम जगत् को एक ऐसे नन्दन-वन के रूप में परिकल्पित करते हैं, जिसका शिल्पन गांधी ने कभी किया था और जो कभी भारतीय अर्थतन्त्र की रीढ़ था । अहिंसा के अर्थतन्त्र का प्रथम और सर्वोपरि लक्ष्य है एक अहिंसक अपरिग्रहमूलक ग्राम इकाई को आविष्कृत आविर्भूत करना ।
हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि भारत सिर्फ अर्थतन्त्र ही नहीं है; बल्कि वह संस्कृति, सद्विवेक, अध्यात्म एवं धर्म का समवेत सुविकसित तीर्थधाम भी है। भारत एक ऐसा विश्व-स्थल है, जिसने अतीत में कई आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, नैतिक, आध्यात्मिक एवं धार्मिक सफल प्रयोग किए हैं और विश्व मानव की एक स्वस्थ छ
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