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________________ व्रतों की परंपरा श्रमण संस्कृति की मौलिक देन है। यह एक निर्विवाद सत्य है। आगार (गृहस्थ ) धर्म और अणगार (मुनि) धर्म की नींव अणुव्रत और महाव्रत की आधारशिला पर खड़ी की गई है। जैन संस्कृति की अस्मिता व्रत है, यह कहना अनुचित नहीं होगा। भगवान पार्श्वनाथ के पूर्व या उपनिषदों से पूर्व वेद, ब्राह्मण और आरण्यक - साहित्य में कहीं पर भी व्रतों का उल्लेख नही आया है। भगवान पार्श्वनाथ की व्रत-परंपरा का उपनिषदों पर काफी प्रभाव पड़ा और उन्होंने इसे अपने रूप में ढाल कर इसे मान्यता दी । 'संस्कृति के चार अध्याय' में रामधारीसिंह दिनकर ने कहा है- "हिंदुत्व और जैनधर्म आपस में घुल मिलकर इतने एकाकार हो गए हैं कि आज का साधारण हिंदू यह जानता ही नहीं कि सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह — ये जैनधर्म के उपदेश थे, हिंदुत्व के नहीं" । यद्यपि वैदिक परंपरा के अनुसार व्रात्य की व्याख्या भी इसी स्पष्टीकरण से युक्त है कि “व्रात्य लोग व्रतों को मानते थे और अर्हन्तों की उपासना करते थे, प्राकृत भाषा बोलते थे। उनके संत ब्राह्मण और क्षत्रिय थे । " सूर्यकाल वैदिक कोश में पूर्ण ब्रह्मचारी को व्रात्य कहा गया है। श्रमण संस्कृति के लिए प्रयुक्त व्रात्य शब्द की दूसरी व्याख्या व्रज् धातु से बने व्रात्य शब्द से विहार करने वाले, चलने वाले अर्थात् अप्रतिबंध विहारी रूप है। जैन श्रमण अप्रतिबंध विहारी कहलाते हैं। आचारांग सूत्र में श्रमण के लिए कहा है—मुनि पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण चारों दिशाओं तथा विदिशाओं में दया धर्म की व्याख्या का निरूपण कर उसका प्रतिपादन करे। एक जातीय या भिन्नजातीय (परिषहों) को जानकर उन्हें सहन करता हुआ परिव्रजन करे । व्रात्य आसीदीयमान शब्द का प्रयोग हुआ। आसीदीयमान अर्थात् पर्यटन करता हुआ । अथर्ववेद में भी आचारांग कथित चार दिशाओं का उल्लेख कर उपरोक्त व्याख्या प्रस्तुत की गई है। परंपरा के परिवर्तन में या देश काल के प्रभाववश किसी भी शब्द का अर्थ या व्याख्याएं बदलती रही हैं। व्रात्य शब्द के साथ भी ऐसा ही हुआ है। व्रात्य शब्द जो पहले व्रत को धारण करने वाले गृहस्थ और श्रमण दोनों का वाचक था वह केवल मुनि का पर्यायवाची बन गया। जैसे— ऋग्वेद में मुनयोः वातरशना । तैत्तिरीय आरण्यक में ॠग्वेद के " मुनयोः वातरशना" को श्रमण ही बताते हुए कहा है— ' वातरशनाः ह च ऋषयः श्रमणाः ऊर्ध्वमन्धिनों बभुवः वैदिक संस्कृति में व्रात्य को गौरवपूर्ण स्थान दिया गया है। व्रात्य त्वं प्राण: एक ऋषिः अत्रा विश्वस्य सत्णति : हे प्राण ! आप अटूट व्रतपाल ( व्रात्य ) अद्वितीय ऋषि हो । आकाश में चलने वाले आप हमारे पालक हो । अथर्ववेद में व्रात्य को विराट ब्रह्म के रूप में मानते हुए कहा है – “अङ्गा प्रत्यङ्ग व्रात्यो सभ्या प्राङ् नमो व्रात्याय । ” यजुर्वेद में व्रात्य की संस्कृति इस प्रकार मिलती हैनमो व्रात्याय व्रात्यानाम् पतये नमः । व्रात्यकांड में वर्णित व्रात्य की व्याख्या में देहधारी से कथन है। साथ ही इसे श्रमसाध्य मानकर वर्ष भर निराहारी रहना आदि वर्णन उपलब्ध होते हैं जो परमात्मा ऋषभदेव से संबंधित हैं। यही व्यक्ति जीवन प्रधान जैन संस्कृति में पूर्णता प्राप्त कर मुक्ति-प्राप्ति के पूर्व साकार और बाद में निराकार परमात्मा रूप माने जाते हैं । पाणिनी महाभाष्य में 'व्रातेन जीवित' शब्द से व्रतों को उन लोगों का दल बताया गया है जो विभिन्न जातियों एवं वृत्तियों के होते हैं और अपनी देह पर निर्भर रहते हैं ( पराश्रित नहीं ) । यह व्याख्या भी करीब श्रमण शब्द की वाचक हो जाती है क्योंकि जैनागमों में स्थान-स्थान पर मुनि 'अणिसिया' शब्द से व्याख्यायित हुए हैं । जैसे - महुगार समा बुद्धा जे भान्ति अणिसिया व्रात्य शब्द का एक अर्थ संस्कार वर्जित भी किया गया है जैसे व्रात्यः संस्कारवर्जितः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014040
Book TitleWorld Jain Conference 1995 6th Conference
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain
PublisherAhimsa International
Publication Year1995
Total Pages257
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size23 MB
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