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________________ व्रात्यजाति एवं जैन संस्कृति साध्वी डॉ. दिव्यप्रभा जी __ आर्य संस्कृति के सार्वभौम विकास में विश्वतोमुखी जैन संस्कृति का विशाल योगदान रहा है। भारतीय संस्कृति ने स्वंय के सर्वदेशीय अस्तित्व को बनाए रखने के लिए संपूर्ण समझौते के साथ अपने अधिकार और उत्तरदायित्व की सुरक्षा का विस्तार किया है। संस्कृति के आद्य संस्थापक परमात्मा ऋषभदेव हैं। उनके द्वारा स्थापित संस्कृति, समाज-व्यवस्था एवं प्रशासन-तंत्र का भरत ने विस्तार किया। पौराणिक परंपरा का यह ज्ञान निर्विवाद और सर्वमान्य है कि भोगभूमि में सादृशता और समता थी, पर कर्मभूमि में प्रारंभ में विसदृशता और विषमता का प्रभाव था। अतः आजीविका को व्यवस्थित रूप देने के लिए परमात्मा ऋषभदेव ने वर्णव्यवस्था की स्थापना की। इसमें निर्बल या आततायियों की रक्षा करने वालों को क्षत्रिय, तैयार वस्तुओं का स्थानांतरण कर लोगों की सुख-सुविधाओं की सुरक्षा करने वालों को वैश्य और पारस्परिक सहयोग एवं आवृत्ति को अपनाने वालों को शूद्र की संज्ञा प्रदान की। बाद में भरत चक्रवर्ती ने अपनी दिग्विजय के बाद दयावृत्ति और दान-धर्म की परंपरा का विस्तार करने के लिए सबको अपने यहां आमंत्रित किया। मार्ग में हरी घास उगवा दी। कुछ तो इस मार्ग से भीतर आ गए और कुछ जीवों को बाधा पहुंचेगी ऐसा सोचकर नहीं आए। भरत ने ऐसे लोगों को अन्य मार्ग से भीतर लाकर 'ब्राह्मण' संज्ञा प्रदान की। राजा भरत की इस पृवत्ति के आद्योपान्त निरीक्षण का निष्कर्ष यही है कि उन्होंने व्रती जीवों को ही ब्राह्मण की संज्ञा दी थी। जाति और संस्कृति के सामंजस्य और व्यवस्था को जैन परिप्रेक्ष्य में देखने पर यह फलितार्थ होता है कि जातिनामकर्म अथवा पंचेन्द्रिय जाति के अवांतर भेद मनुष्यजातिनामकर्म के उदय से होने वाली मनुष्य जाति एक ही है, परंतु आजीविका के भेद से यह चार प्रकार की मानी जाती है 1. व्रत संस्कार से ब्राह्मण 2. शस्त्र धारण करने से क्षत्रिय 3. न्यायापूर्ण धनार्जन करने से वैश्य, और 4. सेवा-वृत्ति से शूद्र अवांतर रूप से जाति के रूप में संस्कृति ने इसे चार रूप इस प्रकार भी दिए हैं:1. वृत्तिरूप जाति-यह वृत्ति अर्थात् व्यवसाय या पेशे से संबंध रखती है। जैसे—बढ़ई, लुहार, सुनार, कुम्हार आदि। 2. वंश—गोत्र आदि रूप जाति—जैसे—अग्रवाल, ओसवाल, खंडेलवाल, चौहाण, रघुवंश, सूर्यवंश आदि । 3. राष्ट्रीय रूप जाति-जैसे—भारतीय, योरूपियन, अमेरिकन, एशियन आदि । 4. सांप्रदायिक जाति-जैसे-जैन, बौद्ध, हिन्दू, सिक्ख, मुसलमान आदि । अनेक जैन ग्रंथों, यजुर्वेद और तैत्तिरीय ब्राह्मणों में परंपरा रूप से उपरोक्त जाति-व्यवस्था को मान्यता दी गई है। परंतु वर्तमान युग में इसमें काफी परिवर्तन आ गए हैं। विशेषतः प्रकृति के अनुसार वृत्ति के बदल जाने से वह निज जाति रूप वृत्ति से भिन्न दिखाई देने लगी है। अब प्रश्न उठता है कि 'व्रात्य जाति' क्या है और जैन, संस्कृति का इससे क्या संबंध रहा है ? 'व्रात्य' शब्द मूलतः 'व्रत' शब्द से बना है। व्रत का अर्थ है-धार्मिक संकल्प या प्रतिज्ञा करके लिया जाने वाला नियम। किसी भी पदार्थ के सेवन का अथवा हिंसादि अशुभ कर्मों का नियत या अनियत काल के लिए संकल्पपूर्वक त्याग करना व्रत है। जो व्रतों को धारण करता है वही व्रात्य कहलाता है। यह व्रात्य शब्द की सामान्य व्याख्या है। इन अनेक व्रात्यों का समूह व्रात्य जाति कहलाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014040
Book TitleWorld Jain Conference 1995 6th Conference
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain
PublisherAhimsa International
Publication Year1995
Total Pages257
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size23 MB
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